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अनेकांत की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ २६१ स्थानात् । भवतु वा वक्तव्यत्वावक्तव्यत्वयोर्धर्मयोः सिद्धिः । तथापि ताभ्यां विधिप्रतिषेधकल्पनाविषयाभ्यां सत्त्वासत्त्वाभ्यामिव सप्तभङ्गयन्तरस्य प्रवृत्तेर्न तद्विषयसप्त विधधर्मनियमविधातोस्ति यतस्तद्विषयसंशयः सप्तधैव न स्यात्तद्धेतुर्जिज्ञासा वा तन्निमित्तः प्रश्नो वा वस्तुन्येकत्र सप्त विधवाक्यनियमहेतुः । इति सूक्ता सत्त्वादिधर्मविषया गौः सप्तभङ्गी। सा च स्याद्वादामृतभिणी' स्याद्वचनार्थस्य कथञ्चिच्छब्देन प्रतिपादनात्', तेनानेकान्तस्य द्योतकेन वाचकेन वा तस्याः प्रतिहतकान्तान्धकारोदयत्वात् । न चैवं स्याच्छब्दवत्कथञ्चिच्छब्दे
अनेकांत के द्योतक अथवा वाचक उस 'कथंचित्' शब्द के द्वारा एकांतरूप अंधकार को नष्ट करके सप्तभंगी का उदय होता है।
शंका-स्यात् शब्द के समान 'कथंचित्' शब्द के द्वारा ही अनेकांत का प्रतिपादन हो जाता है पुनः सत् आदि वचन अनर्थक ही हैं ?
समाधानयह शंका ठीक नहीं है उस कथंचित् शब्द से सामान्य तथा अनेकांत का ज्ञान हो जाने पर भी विशेषार्थी मनुष्य को विशेष-विशेष का ज्ञान कराने के लिये उन सत् आदि विशेषों का भी पुनः प्रयोग किया जाता है।
“सामान्य का प्रतिपादन करने पर भी विशेषार्थी के द्वारा विशेष का पुनः प्रयोग करना चाहिये जैसे 'वृक्ष' । ऐसा सामान्य से कह देने पर भी पश्चात् विशेषार्थी के द्वारा न्यग्रोध है, इस प्रकार कहा
जाता है।"
द्योतक पक्ष में सदादिवचन न्यायप्राप्त हैं क्योंकि उस सदादिवचन के द्वारा कहा गया अनेकांत 'कथञ्चित्' शब्द से द्योतित किया जाता है। यदि उस कथञ्चित् शब्द के द्वारा अनेकांत का द्योतन नहीं मानोगे, तब तो सर्वथारूप एकांत शंका का व्यवच्छेद करके अनेकांत की प्रतिपत्ति का अभाव हो जावेगा । जैसे कि एवकार का प्रयोग न करने पर विवक्षित अर्थ का ज्ञान नहीं होता है तथैव ।
शंका-अनुक्त-बिना कहे भी कथञ्चित् शब्द सामर्थ्य से प्रतीति में आ जावेगा जैसे कि सर्वत्र एवकार बिना प्रयुक्त भी सामर्थ्य से आ जाता है।
समाधान नहीं, प्रतिपादकगुरू की स्याद्वाद न्याय में कुशलता न होने से प्रतिपाद्य-शिष्यों को उस स्याद्वादन्याय की प्रतीति नहीं हो सकेगी। अतएव उस कथञ्चित् शब्द का प्रयोग कहीं पर एक जगह अवश्य ही करना चाहिये।
1 अन्तर्भावात् । (दि० प्र०) 2 वक्तव्यावक्तव्ययोरिति पा० । (दि० प्र०) 3 बसः । (दि० प्र०) 4 सप्तभंगी। (दि० प्र०) 5 बसः । (व्या० प्र०) 6 गर्भोमध्यम् । (ब्या० प्र०) 7 ननु स्याद्वादवचनेन तस्या प्रतिहतैकान्तांधकारोदयत्वं भवतु ननु कथञ्चिच्छब्देनान्तस्तेन कथं तदर्थकथनमित्याह । (दि. प्र.) 8 केचित्योतकत्वं निवेदयन्ति । (दि० प्र०)
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