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अवक्तव्य एकांत का खण्डन ]
प्रथम परिच्छेद
[ २८३
तदेवं स्वामिसमन्तभद्रभानवः स्फुटतरविलसदकलङ्कन्यायगभस्तिभिरपहस्तित समस्तभावैकान्तादिपरमतध्वान्तसन्ततयोपि' परात्मपक्षनिराकरणसमर्थनायत्तं जयमादिशता' भगवताप्तेन किं पुनर्मे शासन' प्रसिद्धेन न बाध्यते इति स्पष्टं पृष्टा इवाहुः
कथञ्चित्ते सदेवेष्टं' कञ्चिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥१४॥
उत्थानिका - इस प्रकार से स्वामी समंतभद्राचार्यवर्य सूर्य जिन्होंने अपनी स्फुटतर-शोभा को प्राप्त अकलंकदेव को न्यायरूपोकिरणों से अथवा निर्दोष न्यायरूपी-किरणों से समस्त भावैकांतादि परमतरूपी अंधकार को परम्परा को विनष्ट कर दिया है, ऐसे होते हुये भी परपक्ष का निराकरण
और स्वपक्ष के समर्थन के आधीन जय को कहते हुये भगवान् आप्त ने ही मानों स्पष्टतया समंतभद्राचार्य से प्रश्न किया कि पुनः मेरा शासन प्रसिद्ध प्रमाणों से बाधित क्यों नहीं होता है ? इस प्रकार से पूछने पर ही मानों श्री समंतभद्रस्वामी उत्तर देते हैं
कारिकार्थ-हे भगवन् ! आपके मत में कथंचित् वस्तु सत्रूप ही है, इष्ट है एवं वही कथंचित् उभयरूप है और वही कथंचित् अवाच्यरूप भी है परन्तु यह सब व्यवस्था नयों की अपेक्षा से ही है सर्वथा नहीं है।
च शब्द से कथंचित् 'सत् अवाच्य' ही है एवं 'असत् अवाच्य' ही है इस प्रकार से इष्ट शब्द से आपका शासन ही इष्ट है, ऐसा समुच्चय करना चाहिये।
तत्त्वार्थवातिकालंकार में श्री अकलंकदेव ने कहा है"प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधि-प्रतिषेधकल्पनासप्तभंगी"।
अर्थ-प्रश्न के निमित्त से एक ही वस्तु में अविरोधरूप से विधि प्रतिषेध की कल्पना सप्तभंगी कहलाती है।
भावार्थ-द्रव्य में सप्तभंगी को घटित करने से-(१) स्यादस्ति द्रव्यं (२) स्यान्नास्ति द्रव्यं (३) स्यादस्ति च नास्ति च द्रव्यं (४) स्यादवक्तव्यं द्रव्यम् (५) स्यादस्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं (६) स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं (७) स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं ।
यहाँ पर सर्वथा अस्तित्व का निषेधक और अनेकांत का द्योतक कथंचित् इस अपर नाम वाला 'स्यात्' शब्द निपात है। उसमें स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा द्रव्य अस्तिरूप है। परद्रव्य,
1 उक्तप्रकारेण । (दि० प्र०) 2 किरणः । (दि० प्र०) 3 निराकृतः । (ब्या० प्र०) 4 आदिशब्देनाभावैकान्तोभये. कान्तावाच्यतकान्ताग्राह्याः । (ब्या० प्र०) 5 परात्मपक्षनिराकरणसमर्थनायत्तजयनादिसमाभगवेत्यादि पाठः । (दि० प्र०) 6 उपदिशता । (ब्या० प्र०) 7 मतम् । (दि० प्र०) 8 प्रत्यक्षेण । (दि० प्र०) १ अर्हतः । (दि० प्र०) शासनं जीवादितत्त्वं वा । (दि० प्र०)
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