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अवक्तव्य एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद
[ २७३ योर्थोभिलापसंसृष्टार्थेन्द्रियबुद्धेः स पश्चादपि स्मार्तशब्दानुयोजनेपि तस्योपयोगाविशेषादजनक एव तेनार्थापायेपि नेत्रधीः शब्दाद्वैतवादिनः स्यादिति धर्मकीर्तिदूषणं,
यः प्रागजनको बुद्धे रुपयोगाविशेषतः । स पश्चादपि तेन स्यादपायेपि नेत्रधी:" इति वचनात् । तथा यदिन्द्रियज्ञानं स्मार्तशब्दयोजनात्प्रागजनक सामान्यव्यवसायस्य तत् पश्चादप्युपयोगाविशेषात् तेनेन्द्रियज्ञानव्यपायेपि सामान्यव्यवसाय:' न स्यात्, तस्य प्रागिवाजनकत्वात्, 'तदन्तरेणापि" दर्शनमयं गौरिति निर्णयः स्यात्,
"यः प्रागजनको' बुद्धरुपयोगाविशेषत: । स पश्चादपि तेनाक्षबोधापायेपि कल्पना"
स्मार्त और शब्दानुयोजन से पूर्व जो अर्थ-निर्विकल्पक (ज्ञान) अभिलाप संसृष्टार्थ इंद्रियबुद्धि सविकल्पक का अजनक है वह पश्चात भी स्मार्त, शब्दानयोजन के होने पर भी उस निर्विकल्पज्ञान का उपयोग-'इन्द्रियज्ञान व्यापार समान होने से अजनक ही है, इसलिये अर्थाभाव में भी शब्दाद्वैतवादियों के यहां सविकल्पज्ञान हो जावेगा। इस प्रकार से शब्दाद्वैतवादी को धर्मकीर्तिगुरू दूषण देते हैं । क्योंकि कहा भी है कि
श्लोकार्थ- जो इंद्रियज्ञान स्मार्त और शब्दानुयोजना के पहले सामान्य-व्यवसाय का अजनक है, वह पश्चात् भी उपयोग सामान्य-व्यवसाय-सामान्य होने से अजनक ही है । इसलिये अर्थ के अभाव में भी उसके द्वारा सामान्य व्यवसाय हो जावे क्योंकि वह पहले के समान उत्तरकाल में भी अजनक ही है। ___ यहाँ हम जैन कहते हैं कि हे सौगत ! जिस प्रकार से आपने शब्दाद्वैतवादी को दूषण दिया है, वैसे ही आपके यहाँ भी दूषण आता है । तथा
जो इंद्रियज्ञान स्मार्त और शब्दानयोजना से पहले सामान्य व्यवसाय का अजनक है, वह पश्चाद् भो उपयोगसामान्य-व्यवसायसामान्य होने से अजनक ही है। इसलिये इंन्द्रियज्ञान के अभाव में भी उसके द्वारा सामान्य-व्यवसाय हो जावे, क्योंकि वह पहले के समान ही उत्तरकाल में भी अजनक ही है । और उसके बिना भी दर्शन से "अयं गौः' इस प्रकार का निर्णय हो जावे।
श्लोकार्थ-जो निर्विकल्पज्ञान पहले उपयोग की अविशेषता-समानता होने से बुद्धि का अजनक है, वह पश्चात् भी अजनक ही है और इसलिये निर्विकल्पज्ञान के अभाव में भी विकल्प हो जावे, ऐसा हम जैन प्रतिपादन कर सकते हैं।
1 अर्थः । (दि० प्र०) 2 स्यात् । (ब्या० प्र०) 3 प्रत्यक्षं विनापि । (दि० प्र०) 4 विकल्पः । (ब्या० प्र०) 5 तस्मात् । (ब्या० प्र०) 6 तदिन्द्रियज्ञानं स्मार्तशब्दानुयोजनात्पश्चादपि सामान्याव्यवसायस्याजनकमेव । कुतः प्राक पश्चात्कालयोः उपयोगेन सामान्यव्यवसायाजनकलक्षणेनार्थेन विशेषाभावात् । (दि० प्र०) 7 य इन्द्रियज्ञानलक्षणोऽर्थः बुद्धे सामान्यव्यवसायस्य । (दि० प्र०) 8 सविकल्पकप्रत्यक्षज्ञानस्य । (दि० प्र०)
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