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अष्टसहस्री
[ कारिका १३
इति प्रतिपादनात् । तदेवं न दर्शनादध्यवसायः संभवति येन' दर्शनस्य स्वालम्बनसमनन्तरप्रत्ययजन्मतत्सारूप्याविशेषेपि स्वविषयप्रतिनियमः सिध्येत् । किञ्च सौगतानामनभिलाप्यस्य विशेषस्यानुभवे कथमभिलाप्यस्य' स्मृतिः ? अत्यन्तभेदात् स्वलक्षणात्सामान्यस्य, सह्यविन्ध्यवत् । न हि सह्यस्यानुभवे विन्ध्यस्य स्मृतिर्युक्ता ।
[ बौद्धो ब्रूते, विशेषस्यानुभवे सामान्यस्य स्मृतिः स्यात् तस्य विचारः ]
'विशेषसामान्ययोरेकत्वाध्यवसायाद्विशेषस्यानुभवे सामान्ये स्मृतिर्युक्तैवेति चेत् कुतस्तयोरेकत्वाध्यवसायः ? न तावत्प्रत्यक्षात् तस्य सामान्याविषयत्वात् नापि तत्पृष्ठभाविनो
इसीलिये निर्विकल्प दर्शन से अध्यवसाय संभव नहीं हैं कि जिससे दर्शन के स्वावलंबन (स्व-नील लक्षण अर्थ ) समनंतरप्रत्ययजन्य ( उपादानभूत पूर्वक्षणज्ञान का जन्म) और तत्सारूप्य ( निर्विकल्पज्ञान से समानता) समान होने पर भी स्वविषय का प्रतिनियम - अपने विषय का अध्यवसाय - निश्चय सिद्ध हो सके अर्थात् नहीं सिद्ध हो सकता है ।
दूसरी बात यह है कि आप बौद्धों यहाँ अनभिलाप्य विशेष स्वलक्षण का अनुभव होने पर अभिलाप्य की स्मृति कैसे होगी ? क्योंकि दोनों में तो अत्यंत भेद है ।
अत्यंत भेद माना है । सह्य और विंध्य पर्व के समान । किसी को भी विंध्याचल की स्मृति होती हुई नहीं देखी
सामान्य से स्वलक्षण में तो आपने क्योंकिस ह्याचल का अनुभव करने पर जाती है ।
[ बौद्ध कहता है कि विशेष का अनुभव होने पर सामान्य की स्मृति हो जाती है, उस पर विचार ] बौद्ध – विशेष और सामान्य में एकत्व का अध्यवसाय होने से विशेष का अनुभव होने पर सामान्य की स्मृति युक्त ही है ।
जैन - यदि ऐसी बात है, तब तो यह बतलाइये कि उन दोनों में एकत्व का अध्यवसाय कैसे हुआ ? आप निर्विकल्पप्रत्यक्ष से तो कह नहीं सकते हैं, क्योंकि वह तो सामान्य को विषय नहीं करता है और न उस निर्विकल्पप्रत्यक्ष के पृष्ठभावी अनन्तरजन्मा विकल्प अथवा अनुमान से आप कह सकते हैं क्योंकि वह विकल्प अथवा अनुमान विशेष को विषय नहीं करता है । और उभय को विषय करने वाला कोई प्रत्यभिज्ञान नाम का प्रमाण आपने तो स्वीकार ही नहीं किया है । उन दोनों में से
1 नवमिति पाठः । उक्तप्रकारेण । (दि० प्र० ) 2 अध्यवसायेन । ( दि० प्र० ) 3 अभिलाप्यस्मृत्यभावे चाभिधानप्रतिपत्तिपूर्वक योजनाभावाद्व्यवसायो नोत्पद्यते इति भाव: । ( दि० प्र०) 4 विकल्पविषयस्य नीललक्षणार्थस्य । ( दि० प्र० ) 5 अभिलाप्यस्य सामान्यस्य पक्षोऽनभिलापस्य विशेषस्यानुभवेपि स्मृतिर्न जायते इति साध्यो धर्मः । स्वलक्षणसामान्ययोरत्यन्तभेदात् । ययोरत्यन्तभेदस्तयोस्तयोरेकतरस्यानुभवेप्यन्यतरस्य स्मृतिर्न जायते यथा सह्यविन्ध्ययोरित्यनुमानं जैनेन कृतम् । (दि० प्र० ) 6 स्वलक्षणान्यापोहयो । ( दि० प्र०)
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