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अष्टसहस्री
[ कारिका १३ प्यक्षज्ञानादभ्यासप्रकरण'बुद्धिपाटवार्थित्व वशादृष्टसजातीये' स्मृतियुक्ता, सविकल्पकप्रत्यक्षादपि तदभावे तदनुपपत्तेः प्रतिवाद्याद्युपन्यस्तसकलवर्णपदादिवत् स्वोच्छ्वासादिसंख्यावद्वा । न हि सविकल्पकप्रत्यक्षेण तद्व्यवसायेपि कस्यचिदभ्यासाद्यभावे' पुनस्तत्स्मृतिनियमतः सिद्धा यतः सविकल्पकत्वप्रकल्पनं प्रत्यक्षस्य फलवत् ।' इति कश्चित्सोप्यप्रज्ञाकर एव, सर्वथैकस्वभावस्य प्रत्यक्षस्य क्वचिदभ्यासादीनामितरेषां च सकृदयोगात् । तदन्यव्यावृत्या तत्र तद्योग इति चेन्न, स्वयमतत्स्वभावस्य तदन्यव्यावृत्तिसंभवे पावकस्याशीतत्वादिव्यावृत्ति
प्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्ष में तो किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं है। और नीलादि को तो ग्रहण करता है किन्तु स्वलक्षण को ग्रहण नहीं करता है, इस प्रकार अक्षज्ञान को यदि कथंचित् व्यवसायात्मक स्वीकार कर लेवें, तब तो मानसप्रत्यक्ष की तो कल्पना भी नहीं हो सकेगी, क्योंकि पुनः मानसप्रत्यक्ष का तो प्रयोजन ही नहीं रहता है।
किंच सविकल्पकज्ञानवादियों के यहाँ उसका प्रयोजन तो अक्षज्ञान से ही सिद्ध हो जाता है। एवं इसी कथन से अव्यवसायात्मक भी मानसप्रत्यक्ष की कल्पना करने वाले का खंडन कर दिया है ऐसा समझना चाहिये।
प्रज्ञाकर (बौद्ध)-निर्विकल्प भी अक्षज्ञान से अभ्यास, प्रकरण एवं बुद्धि की पटुता आदि के वश से दृष्टसजातीय में स्मृति होना युक्त ही है, क्योंकि सविकल्पप्रत्यक्ष ज्ञानवादी नैयायिकों के यहाँ सविकल्पप्रत्यक्ष के होने पर भी उस निर्विकल्प के अभाव में भी वह स्मृति नहीं हो सकती है, जैसे प्रतिवादी के द्वारा उपन्यस्त सकलवर्ण पदादिकों की अभ्यास आदि के बिना स्मृति नहीं हो सकती है। अथवा अभ्यास आदि के अभाव में अपने उच्छ्वास आदि की संख्या का भी निर्णय नहीं हो सकता है। क्योंकि सविकल्पप्रत्यक्ष के द्वारा उसका व्यवसाय होने पर भी किसी को अभ्यास आदि के अभाव में पुनः उसकी स्मृति नियम से सिद्ध नहीं है, जिससे कि प्रत्यक्ष की सविकल्प कल्पना फलवती हो सके।
__ जैन-ऐसा कहने वाले आप प्रज्ञाकर बौद्ध भी अप्रज्ञाकर ही हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष सर्वथा निरंशरूप एकस्वभाववाला है और क्वचित् नीलादि में अभ्यासादि का एवं इतर-क्षणक्षयादि में अनभ्यासादि का युगपत् योग नहीं हो सकता है । अर्थात् वह प्रत्यक्ष नीलादि में तो अभ्यास आदि से युक्त है एवं क्षणक्षयादि में अनभ्यास आदि से सहित हैं, एकस्वभाववाले प्रत्यक्ष में ऐसी कल्पना युगपत् असंभव ही है।
1 प्रस्तावः । (दि० प्र०) 2 जिज्ञासितत्व । सदृशे । (दि० प्र०) 3 तेषामभ्यासादीनामभावे तस्याः दृष्टः सजातीये स्मृतेरसम्भवात् । (दि० प्र०) 4 दृष्टार्थः । (दि० प्र०) 5 पर्वतोऽयमग्निमान् । धूमवत्वात् । यथा महानस इत्युक्ते सत्यपि अनभ्यासास्मृतिर्न स्यात् । (व्या० प्र०) 6 दृष्टसजातीये । (दि० प्र०) 7 नुः । (ब्या० प्र०) 8 अभ्यासादिवशादेव क्षणक्षयादावपि स्मृतिर्भवत्विति स्याद्वादिभिरापाद्यमानदोषभयात्तत्राभ्यासाद्यभावं प्रतिपादयन्तं सौगतं प्रति दूषणमाहुः सर्वथेत्यादि। (दि० प्र०) 9 अनभ्यासादीनां युगपदघटनात् । (दि० प्र०)
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