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अवक्तव्य एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद
[ २६१ "विशेषणं विशेष्यं च सम्बन्ध' लौकिकी स्थितिम् । गृहीत्वा संकलय्यैतत्तथा प्रत्येति नान्यथा"2
इति वचनात्। न चायमियतो व्यापारान् कर्तुं समर्थः; प्रत्यक्षबलोत्पत्तेरविचारकत्वात् प्रत्यक्षवत् । कश्चिदाह 'नैतदेवं दूषणं', प्रत्यक्षादेवाध्यवसायोत्पत्त्यनभ्युपगमात्, शब्दार्थविकल्पवासनाप्रभवत्वान्मनोविकल्पस्य तद्वासनाविकल्पस्यापि पूर्वतद्वासनाप्रभवत्वादित्यनादित्वाद्वासनाविकल्पसन्तानस्य प्रत्यक्षसंतानादन्यत्वात्', विजातीयाद्विजातीयस्योदयानिष्टः, तदिष्टौ यथोदितदूषणप्रसङ्गात्" इति, तस्याप्येवंवादिनः शब्दार्थविकल्पवासना
श्लोकार्थ-विशेषण और विशेष्य इन दोनों के सम्बन्धरूप लौकिकी स्थिति को ग्रहण करके पुनः विकल्पज्ञान की संयोजना करके विशेषण विशेष्य आदि प्रकार से निर्णय करता है, अन्यथा नहीं करता है।
यह विकल्प तो इतने व्यापार को करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष के बल से उत्पन्न होता है, इसलिये अविचारक है। प्रत्यक्ष के समान अर्थात् प्रत्यक्षज्ञान क्षणिक है, इसलिये अविचारक है। सविकल्प भी क्षणिक है और इसी कारण से प्रत्यक्ष के समान वह भी अविचारक है। ___अब वैभाषिक या सौतांत्रिक बौद्ध कहते हैं--
बौद्ध--हमारे यहाँ यह दूषण नहीं आता है, क्योंकि हमने प्रत्यक्ष से ही अध्यवसाय की उत्पत्ति नहीं मानी है।
मनोविकल्प, शब्द के अर्थ की विकल्परूप वासना से उत्पत्ति होती है और वासनाविकल्प भी पूर्ववत् वासनाविकल्प से उत्पन्न होता है, अतएव उस वासनाविकल्प की संतानपरम्परा अनादि है और वह प्रत्यक्ष संतान से भिन्न है, क्योंकि विजातीय से विजातीय की उत्पत्ति मानना इष्ट नहीं है और यदि मान लेवें तब तो उपर्युक्त दूषणों का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा।
जैन-तब तो उस विकल्प की शब्दार्थ विकल्प वासना से उत्पत्ति मानने से निर्विकल्प प्रत्यक्ष में रूपादिविषय का नियम कैसे सिद्ध होगा? और यदि ऐसा मानोगे, तो मनोराज्यादिविकल्प से भी रूपादिविषय का नियम सिद्ध हो जावेगा।
भावार्थ -बौद्ध लोग क्षणिकनिर्विकल्प प्रत्यक्ष से विकल्प की उत्पत्ति मानते हैं, तब तो जिस प्रकार वह निर्विकल्प क्षणिक है, उसी प्रकार से विकल्प भी क्षणिक सिद्ध होता है, उसे पुन: यह विचार करने का अवसर ही नहीं है कि यह विशेष्य है और यह इसका विशेषण है और इन दोनों में परस्पर विशेषण विशेष्य सम्बन्ध है इतना विचार कर सके और तद्विशिष्ट वस्तु के ग्रहण करने में
1 इति । (दि० प्र०) 2 अग्रहणादिप्रकारेण । (दि० प्र०) 3 आशंक्य । (दि० प्र०) 4 प्रत्यक्षाद्विकल्पोत्पत्तिन घटत इत्येतत् । (दि० प्र०) 5 प्रत्यक्षादे वा व्यवसाय उत्पद्यते इति सौगतानामनङ्गीकारात् । विकल्पो जात्यादिव्यवसायी कथमपि न स्यादित्येतदूषणमस्माकं न । (दि० प्र०) 6 वासनाहेतु विकल्पस्य । (दि० प्र०) 7 निविकल्पकात । (दि० प्र०) 8 तस्य प्रत्यक्षसन्तानरूपविजातीयाद्विजातीयविकलोदयस्य इकारे। (दि० प्र०) 9 उभयोरपि विकल्पयोरक्षबुद्धेः सकाशादुत्पत्त्यभावाविशेषात् । (दि० प्र०)
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