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अवक्तव्य एकांत का खंडन ]
प्रथम परिच्छेद
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[ बौद्ध मते निर्विकल्पदर्शनस्याव्यवसायात्मकत्वे सकलप्रमाणप्रमेयविलोप: स्यात् ।
दर्शनेनाव्यवसायात्मना 'दृष्टस्याप्यदृष्टकल्पत्वात् सकलप्रमाणाभावः, प्रत्यक्षस्याभावेनुमानोत्थानाभावात् । तत एव सकलप्रमेयापायः, प्रमाणापाये प्रमेयव्यवस्थानुपपत्तेः । इत्यप्रमाणप्रमेयत्वमशेषस्यावश्यमनुषज्येत । तदुक्तं न्यायविनिश्चये---
"अभिलापतदंशानामभिलापविवेकत: । अप्रमाणप्रमेयत्वमवश्यमनुषज्यते" इति, अभिलापविवेकत इत्यभिलापरहितत्वादिति व्याख्यानात् । प्रथमपक्षोपक्षिप्तदोषपरिजिहोर्षया तन्नामान्तरपरिकल्पनायामनवस्था। नामतदंशानामपि नामान्तरस्मृतौ हि व्यवसाये नामान्तरतदंशानामपि व्यवसायः स्वनामान्तरस्मृतौ सत्यामित्यनवस्था स्यात् । तथा च
[ बौद्ध मत में निर्विकल्पदर्शन को व्यवसायात्मक न मानने से सकल प्रमाण, प्रमेय का लोप हो जाता है ] अव्यवसायात्मक निर्विकल्पदर्शन के द्वारा जाने गये पदार्थ भी नहीं जाने गये के सदृश ही हैं,
कल प्रमाणों का अभाव ही हो जावेगा और प्रत्यक्षप्रमाण का अभाव हो जाने से तो अनुमान की उत्पत्ति भी नहीं हो सकेगी और उसी प्रकार से संपूर्ण प्रमेय-प्रमाण के द्वारा जाननेयोग्य पदार्थ का भी अभाव हो जावेगा, क्योंकि प्रमाण के अभाव में प्रमेय की व्यवस्था बन नहीं सकती है और
ह जगत् अवश्य ही संपूर्ण प्रमाण और प्रमेय से रहित हो जावेगा। तथैव न्यायविनिश्चय ग्रन्थ में कहा भी है
___ श्लोकार्थ-शब्द और उसके अंश- स्वर, व्यञ्जन के नाम से रहित होने से अवश्य ही यह जगत् प्रमाण और प्रमेय से शुन्य हो जावेगा। अर्थात "अभिलाप विवेकतः" इसका अर्थ "अभिलाप से रहित होने से" ऐसा करना चाहिये।
स्मृति के नहीं होने पर इस प्रथमपक्ष में दिये गये दूषणों को दूर करने की इच्छा से उसमें नामान्तर को परिकल्पना करने से अनवस्था दोष आ जाता है । अर्थात् नाम और उसके अंश वर्गों के नामविशेष की स्मृति के होने पर निश्चय होता है, ऐसा द्वितीय विकल्प के करने पर नाम और उसके अंशों का भी नामान्तर की स्मृति के होने पर ही व्यवसाय होता है, पुनः नामान्तर और उसके अंशों का भी व्यवसाय अपने नामान्तर की स्मृति के होने पर होता है---इत्यादि अनवस्था आ जाती है ।
इस प्रकार से भी यह जगत् प्रमाण-प्रमेय की व्यवस्था से रहित ही हो जावेगा और इस जगह भी वही उपर्युक्त कारिका लगा लेनी चाहिये मात्र "अभिलाप विवेकतः" का अर्थ "अभिलाप का निश्चय होना” करना चाहिये यथा
1 ता। (दि० प्र०) 2 ततः। (ब्या० प्र०) 3 जगतः । (व्या० प्र०) 4 अभिलापाभावः कुतः । (ब्या० प्र०) 5 प्रमाणप्रमेयाभावलक्षण । (ब्या० प्र०)
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