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अवक्तव्य एकांत का खंडन ]
प्रथम परिच्छेद
[
बौद्धमते स्मृतेविचारः ]
ननु च नास्मन्मते कश्चित्किञ्चिन्नीलादिकं सुखादिकं वा संविदन्पूर्वसंविदितं तत्सदृशं तन्नामविशेषं च क्रमशः स्मरति, पूर्वसंविदित संवेद्य माननामविशेषयोः 2 सहैव स्मरणात्, तत्संस्कारयोर्ह' श्यदर्शनादेव सहप्रबोधात् । ततोयं किञ्चित्पश्यन्नेव तत्सदृशं पूर्वदृष्टं स्मर्तुमर्हति', तदैव ' तन्नामविशेषस्मरणात्, ततस्तस्येदं' नामेत्यभिधानप्रतिपत्तेः, ततस्तस्य दृश्यस्याभिधानेन योजनाद्व्यवसायघटनान्न किञ्चिदूषणमित्यपरः, तस्यापि " दृश्यमाननाम्नः पूर्वदृष्टस्य च तत्सदृशस्य सह स्मृतिरयुक्तैव, स्वमतविरोधात्, सकृत्स्मृतिद्वयानभ्युपगमात् कल्पनयोर्बाध्यबाधकभावात् । कथमन्यथाऽश्वं विकल्पयतोपि गोदर्शने "कल्पनाविरह
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[ बौद्ध मत में स्मृति पर विचार ]
बौद्ध - हमारे मत में कोई भी व्यक्ति किसी भी नीलादिक अथवा सुखादिकों का संवेदन करते हुये पूर्व में संविदित-जाने हुये एवं तत्सदृश, तन्नाम विशेष को क्रम से स्मरण नहीं करता है, किन्तु पूर्व संविदित और संवेद्यमान नामविशेष का एक साथ ही स्मरण कर लेता है, क्योंकि उन पूर्व संविदित और संवेद्यमान नामविशेष के संस्कार का दृश्य दर्शन होने से ही एकसाथ बोध हो जाता है, अतएव हम लोग किंचित् नीलादिवस्तु को देखते हुये ही पूर्व में देखे हुये उसके सदृश का स्मरण कर सकते हैं, क्योंकि उसी काल में ही उसके नामविशेष का स्मरण आ जाता है और पुनः उसका "यह नाम है " इस प्रकार से अभिधान का ज्ञान हो जाता है । इसीलिये उस दृश्य का नाम से संबंध हो जाता है और उसका व्यवसाय - निश्चय भी हो जाता है, इसलिये हमारे यहाँ कोई दोष नहीं आता है । अर्थात् आपने जो कहा कि जगत् विकल्परहित अचेतन हो जाता है, यह दोष हमारे यहाँ नहीं है ।
जैन - ऐसी मान्यता में भी आपके यहाँ दृश्यमान नाम और पूर्व में देखे गये तत्सदृश नाम की एक साथ स्मृति अयुक्त ही है, क्योंकि स्वमत में विरोध आ जाता है, आपने भी एक साथ वर्तमान और अतीत विकल्परूप दो स्मृतियाँ स्वीकार नहीं की हैं और यदि दृश्यमान नाम और पूर्वदृष्ट इन दोनों के स्मृति की एकसाथ कल्पना करें तब तो बाध्य बाधक दोष उपस्थित हो जाता है । अन्यथा दोनों के दर्शन होने पर अश्व का विकल्प करते हुये भी कल्पना से रहित की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? अतएव पूर्वदृष्ट और दृश्यमान नामविशेष में ही नहीं किन्तु " नीलम् " इस प्रकार के नाममात्र में भी एकसाथ स्मृति अयुक्त ही है ।
1 ना । ( ब्या० प्र० ) 2 ता । ( व्या० प्र० ) 3 युगपत् प्रादुर्भावात् । उदयात् । ( दि० प्र० ) 4 सौगतः । ( दि० प्र० ) 5 यतस्तच्च कुत: । ( व्या० प्र० ) 6 अर्थः । ( ब्या० प्र० ) 7 नीलादेः क्षणस्य । ( ब्या० प्र० ) 8 निश्चय: । ( ब्या० प्र० ) 9 सौत्रान्तिको वैभाषिको वा । ( व्या० प्र०) 10 सोगतस्य । ( दि० प्र०) 11 अश्वं विकल्पयतो गोदर्शनकाले गवि विकल्पोप्यस्त्येवोत्तरकाले गोविस्मरणान्यथानुपपत्तेरिति वदन्तं प्रतिवादिनं प्रति गवि विकल्पो नास्त्येव विकल्पद्वयस्य बाध्यबाधकभावसद्भावादिति या गोदर्शने कल्पनाविरहसिद्धिः समर्थ्यते सा कथमिति भावः । (दि० प्र०)
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