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अवक्तव्य एकांत का खंडन ]
प्रथम परिच्छेद
[ २५६
दनभिलापात्मकार्थसामर्थ्येनोत्पत्तेः । प्रत्यक्षस्य 'तदभावेप्यध्यवसायकल्पनायां प्रत्यक्षं कि नाध्यवस्येत् ? स्वलक्षणं स्वयमभिलापशून्यमपि प्रत्यक्षमध्यवसायस्य हेतुर्न पुना रूपादिरिति कथं सुनिरूपिताभिधानम् ? यदि पुनरविकल्पकादपि प्रत्यक्षाद्विकल्पात्मनोध्यवसायस्थोत्पत्तिः, प्रदीपादे: कज्जलादिवद्विजातीयादपि' कारणात्कार्यस्योत्पत्तिदर्शनादिति मतं तदा तादृशोर्थाद्विकल्पात्मनः 'प्रत्यक्षस्योत्पत्तिरस्तु, तत एव तद्वत् । जातिद्रव्यगुणक्रियापरिभाषाकल्पनारहितादर्थात्कथं जात्यादिकल्पनात्मकं प्रत्यक्षं स्यादिति चेत् प्रत्यक्षात्तद्रहिताद्विकल्प: कथं जात्या
जैन-यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि उस प्रत्यक्ष में अभिलाप-शब्द के संसर्ग का अभाव है। जिस प्रकार से वर्ण-नीले, पीले आदि में शब्द के संसर्ग का अभाव है, उसी प्रकार से प्रत्यक्ष में भी अभाव है, क्योंकि वह निर्विकल्पप्रत्यक्ष अभिलाप की कल्पना से रहित है और वह अनभिलापात्मक है, यह बात उस प्रत्यक्ष में सामर्थ्य से सिद्ध है । यदि पुन: उस निविकल्पप्रत्यक्ष में शब्द के संसर्ग का अभाव होने पर भी उसे आप अध्यवसाय का हेतु कल्पित करते हैं तब तो उस प्रत्यक्ष को ही व्यवसायात्मक क्यों नहीं स्वीकार कर लेते हैं ? यदि आप यों कहें कि जो प्रत्यक्ष है वह स्वलक्षणभूत एवं स्वयं अभिलाप से शून्य है, तो भी अध्यवसाय का हेतु है और पुनः रूपादिक अध्यवसाय के प्रति हेतु नहीं हैं, यह कथन भी आपका समीचीन नहीं है।
बौद्ध-निर्विकल्प प्रत्यक्ष से विकल्पात्मक अध्यवसाय की उत्पत्ति होती है, जैसे कि प्रदीप आदि से कज्जल आदि । अत: विजातीयकारण से भी कार्य की उत्पत्ति देखी जाती है। अर्थात् दीपक भास्वर है, उससे विजातीय कज्जल उत्पन्न होता है तथैव स्वयं अविकल्पात्मक प्रत्यक्ष से नाम जात्यादि संश्रयात्मक विकल्प की उत्पत्ति हो जाती है।
जैन-यदि ऐसी बात है, तब तो उस प्रकार के विकल्पात्मक स्वलक्षण-अर्थ से प्रत्यक्ष की भी उत्पत्ति हो जावे। विजातीयकारण से कार्य की उत्पत्ति होने से प्रदीप आदि से कज्जल आदि की उत्पत्ति के समान ।
बौद्ध-जाति, द्रव्य, गुण क्रिया और परिभाषा इन पाँच कल्पनाओं से रहित स्वलक्षणभूतअर्थ से जात्यादि कल्पनात्मक प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ?
जैन - यदि ऐसी बात है, तब तो उन कल्पनाओं से रहित प्रत्यक्ष से जात्यादि-कल्पनात्मक विकल्प कैसे हो सकता है ? इस प्रकार से प्रश्न तो समान ही होवेगा।
बौद्ध-विकल्प तो जात्यादि विषय रूप है, अतः यह कोई दोष नहीं है । अर्थात् जात्यादि विषय
1 अभिलापाभावे । (दि० प्र०) 2 विकल्प । (ब्या० प्र०) 3 प्रत्यक्षविषयः स्वलक्षणमिति सम्बन्धः । (ब्या० प्र०) 4 अध्यवसायं जनयेत् । (ब्या० प्र०) 5 रूपादि । (ब्या० प्र०) 6 निर्विकल्पकदर्शनात् । (दि० प्र०)7 कज्जला तद् इति पा० । (दि० प्र०) 8 विकल्परहितात् । शब्दरहितात् । (दि० प्र०) 9 विकल्पात्मनो ज्ञानस्य । (दि० प्र०) 10 यथा प्रदीपादेः सकाशात् कज्जलादेरुत्पत्तिः । (दि० प्र०)
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