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अष्टसहस्री
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[ कारिका १२ मन्धसर्प बिलप्रवेशन्यायमनुसरति', त्रैलोक्यस्य व्यक्तात्मनाऽपेतत्वसिद्धेः2 अव्यक्तात्मनास्तित्वव्यवस्थितः । "हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् । सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम्"
इति वचनात् । परमार्थतो व्यक्ताव्यक्तयोरेकत्वान्न स्याद्वादावलम्बनं कापिलस्येति चेन्न, तथा विरोधस्य' तदवस्थानात् । प्रधानाद्वैतोपगमे तु नोभयकात्म्यमभ्युपगतं स्यात् ।
अंत में महानुरूप कार्य व्यक्त प्रधान में तिरोभूत हो जाता है-छिप जाता है। इसलिये नित्यत्व का विरोध होने से पदार्थ अभावरूप भी दिखते हैं। मतलब यह है कि व्यक्त प्रधान और उसके कार्य बुद्धि, अहंकार आदि में अभावनाम की चीज तिरोभावरूप से छिपी हुई है। अथवा विनाशरूप होकर भी वह प्रधान अपने अस्तित्व को स्थिर रखे हुये है। तात्पर्य यह है कि घड़ा फूटा तो वह अपनी मिट्टीरूप मूल अवस्था में छिप गया है, अतः उस घट का अस्तित्व विद्यमान है । मतलब सांख्य उत्पाद विनाश को न मानकर आविर्भाव और तिरोभाव को स्वीकार करता है।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि भाई ! जिस रूप से मिट्टी से घट आविर्भूत हुआ है, उसीरूप से घट मिट्टी में तिरोभत नहीं हआ है, प्रत्युत कपालरूप से तिरोभूत हुआ है। इस बात को सांख्य ने बिना आनाकानी के म
नाकानी के मान ली. तब जैनाचार्य ने कहा कि आप तो स्यावादी हो गये क्योंकि स्यादादी भी एक पर्याय से वस्तु का उत्पाद और दूसरी पर्याय से ही वस्तु का विनाश मानते हैं। मिट्टी से यदि घटपर्याय उत्पन्न हुई है, तो पिंड पर्याय का ही विनाश हुआ है। क्योंकि एक समय में उसी पर्याय का उत्पाद और उसी का विनाश सम्भव नहीं है। सांख्य ने भी एक किसी पर्याय का आविर्भाव तो दूसरी पर्याय का तिरोभाव माना है। बस ! बिना मालूम सांख्य स्याद्वादमत का अनुसरण कर लेता है। एक अंधे सर्प ने नियम कर लिया कि “मैं बिल में नहीं जाऊँगा" परन्तु घूमघुमाकर जहाँ भी घुसा वह बिल ही सिद्ध हुआ। इसलिये आप सांख्यमतानुयायी सर्वथा पदार्थ को नित्य मानते हुये भी पहले उभयकांत में आये और परस्परनिरपेक्ष मान्यता से जब घबराये तब स्याद्वाद में घुस गये, सो आपके एकांतसिद्धान्त से विपरीत ही है। यदि सांख्य कहे कि हम सम्पूर्ण जगत् को को प्रधानरूप से अद्वैत-एकरूप ही मानते हैं, तब तो प्रधानाद्वैत को स्वीकार करने से उभयकात्म्य कहाँ रहेगा? आपके यहाँ तो मूल में ही जगत् प्रकृति और पुरुषरूप से द्वैतरूप है।
यही बात यहाँ पर सांख्य सिद्धांतानुसार त्रैलोक्य के आविर्भाव-अवस्थान-सद्भाव में और तिरोभाव-अभाव में प्रकट की गई है। क्योंकि व्यक्तात्मना-महदादिरूप से त्रैलोक्य का अपेतत्व
1 स्वदर्शनापेक्षं यथोपलम्भमाश्रयस्वीकारणात् । सांख्यस्य । (दि० प्र०) 2 ननु व्यक्ताव्यक्तस्वरूपेण ताभ्यामस्तित्त्वादि व्यवस्थस्यादित्याशंकायामाहः । (दि० प्र०) 3 त्रैलोक्यं व्यक्तात्मना कार्यरूपेण विनश्यत्यव्यक्तात्मना कार्यरूपेण सन्तिष्ठते । (दि० प्र०) 4 कारणम् । (ब्या० प्र०) 5 ननु । (ब्या० प्र०) 6 व्यक्ताव्यक्तयोरेकत्त्वप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 7 नित्यानित्ययोर्व्यक्ताव्यक्तयोः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणस्य। (ब्या० प्र०) 8 पूर्वम् । प्रधानाप्रधानयोः । (ब्या० प्र०) 9 व्यक्ताव्यक्तयोरेकत्त्वाभ्युपगमपक्षेऽऽपादितदोषपरिहारार्थमिदं वचनम् । (दि० प्र०) 10 भावैकान्तपक्षोपक्षि सदोषानुषंग इति भावः । उभयकात्म्यं स्वस्य । (दि० प्र०)
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