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शब्द के नित्यत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद
[ १३३ [ मीमांसकाभिमतशब्दनित्यत्वस्य निराकरणं ] एतेन मीमांसकानां शब्दस्य प्रागभावानभ्युपगमेऽनादित्वप्रसङ्गात् पुरुषव्यापारानर्थक्यं स्यादित्युक्तं प्रतिपत्तव्यम् । शब्दस्याभिव्यक्तौ पुरुषव्यापारस्योपयोगान्नानर्थक्यमिति चेन्न, ततः प्राक् तदावेदकप्रमाणाभावादभिव्यक्तिकल्पनानुपपत्तेः । कलशादेहि समन्धकारावृततनोः प्रदीपव्यापारात्पूर्वं सद्भावावेदकप्रमाणस्य 'स्पर्शनप्रत्यक्षादेः संभवादुपपन्ना प्रदीपेनाभिव्यक्तिकल्पना, न पुनः शब्दस्य, तदभावात् । प्रत्यभिज्ञानादेस्तद्भावावेदकस्य प्रमाणस्य भावा
[ मीमांसकाभिमत शब्द नित्यत्व का खंडन ] मीमांसकों के यहाँ भी प्रागभाव को स्वीकार न करने पर शब्द को अनादिपने का प्रसंग आवेगा तथा पुरुष व्यापार-तालु आदि प्रयत्न निष्फल हो जावेंगे। इसी उपर्युक्तकथन से यह भी दोष समझ लेना चाहिये।
भावार्थ-यदि सांख्य अथवा मीमांसक प्रागभाव एवं प्रध्वंसाभाव का अपलाप करते हैं तो इनमें अनादित्व एवं अनन्तत्व का प्रसंग आ जाता है, क्योंकि पुरुष व्यापार के बिना कभी भी घटादिकार्य होते हुये नहीं देखे जाते हैं। इसी प्रकार मीमांसकों ने जो शब्द को नित्य माना है और प्रागभाव नहीं माना है, उन्हें भी उसका प्रागभाव स्वीकार करना चाहिये, नहीं तो तालु एवं ओष्ठ आदि का व्यापार सब व्यर्थ हो जावेगा।
मीमांसक-शब्द की अभिव्यक्ति में पुरुष का व्यापार उपयोगी है, अतः अनर्थक नहीं है।
जैन नहीं ! पुरुष व्यापार के पहले उन शब्दों का आवेदक-बताने वाला प्रमाण नहीं पाया जाता है । अतएव अभिव्यक्ति की कल्पना नहीं बन सकती है क्योंकि अंधकार से ढके हुये जो कलश आदि हैं प्रदीप व्यापार से पूर्व उनके सद्भाव को कहने वाला स्पर्शन प्रत्यक्ष आदि प्रमाण संभव है अतएव प्रदीप के द्वारा उन कलश आदिकों की अभिव्यक्ति होती है यह कल्पना बन जाती है किन्तु शब्द में नहीं हो सकती है क्योंकि उसके सद्भाव को कहने वाले दर्शन प्रत्यक्षादि प्रमाणों का अभाव है।
अर्थात् अन्धकार से आच्छादित घट आदि पदार्थ प्रदीप के पहले भी स्पर्शनइन्द्रिय के प्रत्यक्षप्रमाण आदि से जाने जाते हैं, अतः उनकी प्रगटता दीपक के द्वारा मानना उचित है, किन्तु इस प्रकार से तालु आदि के द्वारा शब्दों की प्रगटता मानना युक्त नहीं है, क्योंकि तालु आदि व्यापार के पहले उन शब्दों को सिद्ध करने वाला कोई भी प्रमाण नहीं है ।
मीमांसक-उन शब्दों के सद्भाव को कहने वाले प्रत्यभिज्ञान आदि प्रमाण विद्यमान हैं अतः कोई दोष नहीं आता है। । ।
1 आगम । (ब्या० प्र०) 2 ताल्वादिव्यञ्जकात् पूर्व शब्दसद्भावग्राहकप्रमाणम् । (दि० प्र०) 3 परः । शब्दः । (दि० प्र०) 4 अर्थापत्तिः । (दि० प्र०)
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