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अष्टसहस्री
[ कारिका १०
श्रयणे स्याद्वादानुसरणप्रसङ्गात् । तत्र परिणामानां तदभिन्नानां क्रमशो वृत्तिर्मा भूत्, परिणामिनोऽक्रमत्वात् । ततो भिन्नानां व्यपदेशोपि मा भूत्-प्रधानस्यैते परिणामा इति, संबन्धासिद्धरनुपकारकत्वात् । न हि नित्यं प्रधानं परिणामानामुपकारक, तस्य क्रमयोगपद्याभ्यामुपकारकत्वायोगात् । नापि परिणामेभ्यस्तस्योपकारः, तस्य तत्कार्यत्वेनानित्यत्वापत्तेः । 'तैस्तस्योपकारेपि सर्व समानमनवस्था' च । यावन्तो हि परिणामास्ता
व्यक्ति ही मानी है उसी प्रकार से उनके यहाँ भी घट पट आदि कार्य सर्वगत हो जाते हैं तब मीमांसक ने कह दिया कि बाधा ही क्या है सभी रोटी, पक्वान्न, खेती, धान्य की फसल आदि रूप कार्यों को सांख्य के सिद्धान्तानुसार सर्वगत मान लो क्या बाधा है ? क्योंकि सांख्य ने सभी कार्यों का आविर्भाव माना है और पहले वे उन कार्यों का तिरोभाव मानते हैं तिरोभाव का अर्थ है मौजूद वस्तु का किसी चीज से ढक जाना एवं आविर्भाव का अर्थ है पूनः उस ढकी हई का प्रकट हो जाना जैसे कमरे में पुस्तकें अंधकार से ढकी हैं दीपक जलते ही प्रगट हो गईं इत्यादि । अथवा बादल से हटते सूर्य तिरोहित है हवा के झकोरों से बादल हटते ही सूर्य का आविर्भाव हो जाता है । - इस पर जैनाचार्यों ने कहा कि सांख्य के यहाँ जैसे चाक और दण्ड से घट प्रकट होता है उसी प्रकार से चाक का घूमनारूप व्यापार भी चाक से प्रकट हुआ ही कहो। चाक ने अपने भ्रमणरूप व्यापार को किया है ऐसा मत कहो पुनः चाक भ्रमणरूप व्यापार भी सर्वगत, नित्य हो जावेगा और सदा घट उत्पन्न होते ही रहेंगे और पूर्ववत् प्रश्न उठते ही चले जावेंगे कि चाक से उसके भ्रमणरूप व्यापार की अभिव्यक्ति उस कारणरूप चाक से भिन्न है या अभिन्न ? क्योंकि यदि चाक अपने भ्रमणरूप व्यापार को उत्पन्न करता है तब तो उस चाक, दण्ड कभार आदि भिन्न-भिन्न कारणों के भिन्न-भिन्न व्यापार कल्पित होंगे पुन: उसके उत्पादन में भी भिन्न-भिन्न व्यापारों की कल्पना कीजिये, अनवस्था ही आ जावेगी, किन्तु यदि चाक अपने भ्रमणरूप व्यापार को प्रकट करता है ऐसा ही मानोगे तो अनवस्था नहीं आवेंगी अर्थात् कारक पक्ष में अनवस्था दुनिवार है। अतः यदि प्रथम पक्ष लेवें कि चाक से उसका भ्रमणरूप व्यापार भिन्न है तब तो व्यापार वाले चाक का कुछ भी उपयोग नहीं रहेगा क्योंकि उस चाक से तो उसका घूमना जब बिल्कुल भिन्न ही है तब उस घूमने मात्र से ही घट बन जावेंगे पुनः चाक और दण्डे की आवश्यकता से क्या प्रयोजन सिद्ध रहेगा? अर्थात् चाक की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी क्योंकि कार्य पूर्ण होने कत ही कारणों की आवश्यकता रहती है किन्तु जब चाकरूपकारण से सर्वथा पृथक् ही उसका घूमनारूप व्यापार है और उसी घूमने से ही घट कार्य पूर्ण हो रहे हैं फिर सर्वथा भिन्न व्यापार वाले कारणरूप चाक से क्या होगा? जब घूमने मात्र से ही घड़े बन रहे हैं तब चाक क्या करेगा? अर्थात् उस चाक के लिये कोई कार्य
1 विकल्पयोर्मध्ये । (ब्या० प्र०) 2 प्रवृत्तिः । (दि० प्र०) 3 प्रधानस्य । (दि० प्र०) 4 कथनम् । (ब्या० प्र०) 5 अभिन्नः । (ब्या० प्र०) 6 परिणामिनः परिणामकार्यत्वेनानित्यत्त्वापत्तेः । (दि० प्र०)7 परिणामः । (दि० प्र०) 8 भिन्ने । (दि० प्र०) 9 ततश्च । (दि० प्र०)
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