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अष्टसहस्री
[ कारिका ११ [ यदि बौद्धोऽभावं प्रमाणस्य विषयं न मन्यते तर्हि तस्य प्रमाणद्वयं संख्या न घटते ] तेषां तत्प्रमेयतो'पसंख्यानं 'प्रमाणद्वयनियमं विघटयति । भावनैरात्म्यस्य प्रमाणाकारणत्वात्प्रतिबन्धनियमो मा भूत्, प्रमाणनैरात्म्ययोस्तादात्म्यानिष्टेस्तदुत्पत्तिप्रतिबन्धस्य विरोधात्, नैरात्म्यात्प्रमाणस्योत्पत्तौ तस्य भावस्वभावत्वप्रसक्तेः, तयोः 'प्रतिबन्धान्तरोपगमे
ज्ञान से यह मनुष्य स्याद्वाद पद्धति से मोक्ष मार्ग को तय कर मोक्ष महल की छत पर पहुँच जाता है। जैसे वस्तु स्वरूपादि से है वैसे ही यदि पररूप से भी मान लोगे तब अद्वैतकांत में स्वस्वरूप से अस्तित्व के समान जैनमत, बौद्धमत, सांख्यमत आदि से भी अस्तित्व हो जाने से अद्वैतभाव समाप्त होकर द्वैतभाव आ जावेगा । अथवा पररूप से जैसे वस्तु नास्तिरूप है वैसे ही स्वरूपादि से भी नास्ति मान लोगे तब तो वस्तु का स्वभाव समाप्त होकर आकाशकुसुमवत् सर्वथा उसका अभाव ही हो जावेगा। इसलिये बढ़िया तो यही है कि प्रत्येक वस्तु को स्वपर चतुष्टय से अस्ति-नास्तिरूप मानते चलिये विरोधादि दोषों को अवकाश ही नहीं मिलेगा।
द बौद्ध अभाव को प्रमाण का विषय मान लेते हैं तो उनकी दो रूप
प्रमाण संख्या नहीं रहती है, तीन प्रमाण मानने पड़ेंगे ] उन बौद्धों के द्वारा अभाव को भी प्रमेयपना स्वीकार किया जाने पर तो उनके द्वारा स्वीकार किये गये दो प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान) की संख्या विघटित हो जाती है। अर्थात प्रत्यक्ष एवं अनुमान भावस्वभाव पदार्थ को ही विषय करते हैं । अतएव अभाव को ग्रहण करने वाला कोई अन्य ही प्रमाण खोजना होगा, क्योंकि भाव नैरात्म्य-अर्थात भावांतररूप अभाव नहीं किन्तु तुच्छाभाव रूप अभाव प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण को उत्पन्न करने के प्रति अकारण है। अर्थात् कारण नहीं है। अतएव अभाव को ग्रहण करनेरूप प्रतिबंध-अविनाभाव का नियम भी नहीं रहेगा। अर्थात् जब प्रत्यक्ष और अनुमान अभाव को भी ग्रहण नहीं करते हैं, तब उनके साथ अभाव को ग्रहण करने का अविनाभाव भी नहीं है, अत: उस अभाव को ग्रहण करने के लिये कोई तीसरा प्रमाण मानना ही पड़ेगा।
प्रमाण और नैरात्म्य-तुच्छाभावरूप अभाव में तादात्म्य इष्ट नहीं है, क्योंकि उस नैरात्म्यरूप भाव से उस प्रमाण की उत्पत्ति के संबंध-अविनाभाव का विरोध है। यदि उस नैरात्म्य से भी प्रमाण की उत्पत्ति स्वीकार करो, तब तो नैरात्म्य को भावस्वभावपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। यदि उन प्रमाण एवं नैरात्म्य का भिन्नरूप कोई संबंध स्वीकार करोगे, तब तो हेतु तीन प्रकार न होकर एक चौथा और हो जावेगा। अर्थात् आप बौद्ध ने हेतु तीन प्रकार के माने हैं। कारणहेतु, स्वभावहेतु भऔर अनुपलब्धिहेतु। पुनः प्रतिबंधांतर-भिन्न संबंधरूप एक और हेतु हो जाने से हेतु के चार भेद स्वीकार करने होंगे और यदि आप कहें कि हम प्रमाण और नैरात्म्य में तीनों प्रकार का संबंध
1 अर्थानाम् । (दि० प्र०) 2 प्रतिपादितदोषभयादभावस्य प्रमेयत्वमभ्युपगच्छन्तं प्रत्याह । (ब्या० प्र०) 3 कथनम् । (ब्या० प्र०) 4 ता । (ब्या० प्र०) 5 ज्ञानं प्रति । (ब्या० प्र०) 6 अभावात् । (दि० प्र०) 7 अविनाभावः । (दि० प्र०)
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