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अभाव एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद
[ २२६ लिङ्गस्य' त्रिविधत्वविरोधात् । तदप्रतिबन्धे प्रमाणान्तरसिद्धेः कथं प्रमाणद्वयनियमविघटनं न घटेत', तदुत्पत्त्यभावे प्रत्यक्षस्यानुमानस्य चानुदयात्',
'अर्थस्यासंभवेऽभावात प्रत्यक्षेपि प्रमाणता । 10प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे1 समं द्वयम् ॥ इति वचनात् ।
स्वीकार नहीं करते हैं, तब तो एक भिन्न ही प्रमाण और सिद्ध हो जाने से आपके प्रमाणद्वय के नियम का विघटन क्यों नहीं घटित होगा ? अर्थात् प्रमाणद्वय का नियम विघटित ही हो जावेगा, पुनः उस अभाव से उस अभावज्ञान की उत्पत्ति न होने से प्रत्यक्ष और अनुमानरूप प्रमाण का भी उदय नहीं होगा, क्योंकि कहा भी है
__ श्लोकार्थ-पदार्थ न होने पर प्रत्यक्षज्ञान भी उत्पन्न नहीं होता है, अतः भावरूप पदार्थ से उत्पन्न हुये प्रत्यक्ष में ही प्रमाणता है, क्योंकि साध्य के साथ हेतु का अविनाभावी स्वभाव होने पर प्रत्यक्ष और अमुमान दोनों ही समान हैं।
अर्थात् बौद्ध की मान्यतानुसार पदार्थों से ही ज्ञान उत्पन्न होते हैं, पदार्थ के अभाव में ज्ञान उत्पन्न नहीं होते हैं । अतः भावरूप अर्थ उत्पन्न होने से ही प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाणरूप माने गये हैं और पदार्थ से उत्पन्न होना स्वभावरूप अविनाभाव ही उन ज्ञानों की प्रमाणता में हेतु है, इसलिये वे दोनों ज्ञान प्रमाणरूप हैं। यदि पदार्थ अभावरूप है, तब उस अभाव से अभावज्ञान की उत्पत्ति तो होती नहीं है, अतः उस अभाव का ज्ञान कराने के लिये न प्रत्यक्षप्रमाण उत्पन्न होगा और न अनुमान ही उदित होगा। मतलब दोनों ही प्रमाणों का उदय न होने से उन दोनों ही प्रमाणों का अभाव होगा।
यदि आप बौद्ध ऐसा कहें कि मन में होने वाला नास्तिता ज्ञानरूप अभावज्ञान है उससे इस अभाव को जान लेंगे तो भी अभावप्रमाण नाम का प्रमाण मानना पड़ेगा, जैसे कि मीमांसक अभाव नाम का छठा प्रमाण मानते हैं, उसी का स्पष्टीकरण
मानसरूप जो नास्तिताज्ञान है, वह स्वकारणरूप सामग्री के निमित्त से उत्पन्न होकर अभाव का ज्ञान कराने वाला है, ऐसा होने पर वह अभाव एक भिन्न ही प्रमाण सिद्ध होता है, जो कि आपके
1 प्रमाणस्य । (दि० प्र०) 2 कार्यस्वभावानुपलब्धिभेदेन । (दि० प्र०) 3 भावस्वभावप्रमाणकारणकारणत्वान्नरात्म्यस्य भावरूपत्वम् । (दि० प्र०) 4 प्रत्यक्षानुमानाभ्यां सकाशादभावग्राहकज्ञानस्य । (दि० प्र०) 5 सर्वस्य सर्वदाभावा एवैकान्तसंभवा । अभावात्प्रत्यक्षस्य । (दि० प्र०) 6 तदुत्पत्तिनिमित्तसार्थस्याभावे सति प्रत्यक्षमनुमानं च नोत्पद्यते सौगतानां कुत: अग्रेतनकारिकायामस्यैवार्थस्य सौगतः स्वाभिप्रायेण प्रतिपादितत्वात् । (दि० प्र०) 7 अभावग्राहकस्य । (दि० प्र०) 8 तज्जन्मतद्रूपतदध्यवसायेषु सत्सु नीलादौ दर्शनं प्रामाण्यमुपलभते । एवमर्थस्यासंभवे सति प्रत्यक्षानुमानयोरभावो घटतेऽन्यथाऽर्थस्य संभवेऽनुमाने प्रत्यक्षेपि प्रमाणता स्यात् । प्रतिवन्ध: स्वभावोऽर्थः प्रमाणस्य कारणमेवं सति प्रमाणद्वयस्यार्थकारणत्वात् द्वयं सममिति सौगतसिद्धान्तात् । (दि० प्र०) 9 ततश्च । (दि० प्र०) 10 धूमादेः । (दि० प्र०) 11 साध्यसिद्धिहेतुः । (दि० प्र०) .
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