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अष्टसहस्री
[ कारिका ११
सिद्ध कर दिया है । यहाँ तो अपेक्षाकृत कथन है कि सर्वत्र छहों द्रव्य एक दूसरे में दूध पानी के समान मिलकर भी कोई भी द्रव्य अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है। सभी अपने आप में अत्यंताभाव को लिये हये हैं नहीं तो जीव अपने अस्तित्व से च्युत होकर पुद्गल आदि अचेतन बन जावेगा किन्तु ऐसा होना सर्वथा असंभव है। बस ! यहाँ इतना ही अभिप्राय समझना चाहिये क्योंकि सिद्धशिला पर सिद्धों में भी छहों द्रव्य विद्यमान हैं सूक्ष्म जीवों का वहाँ पैंतालीस लाख योजन प्रमाण की सिद्धशिला में भी निवास है किन्तु इस कारण वे सिद्ध जीव सप्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे न वे संसारी जीवों से सहित ही कहलायेंगे। ये सब वस्तुव्यवस्था ही ऐसी है। अतः सूखे वृक्ष काष्ठादि पदार्थ, धान्य, पत्थर के ढेले, मोती, मूंगे, स्वर्ण, चाँदी आदि पृथ्वीकाय आदि अचेतन ही माने गये हैं ऐसा समझना चाहिये और छहों द्रव्यों के अस्तित्व को कायम रखने के लिये अत्यंताभावरूप महाकल्पवृक्ष की छाया में आकर विश्राम करना चाहिये जिससे आप विसंवाद के आतप से बच जावेंगे ।
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