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अष्टसहस्री
[ कारिका ११
अत्यंताभाव का सारांश जीव के स्वरूप से पुद्गल का स्वरूप भिन्न होने से उसमें अत्यंताभाव है, तीन काल में भी ये दोनों एकस्वरूप नहीं हो सकते हैं। अत: जीव स्वरूप से अस्तिरूप होकर भी पर-पुद्गलादिरूप से अभावरूप है, क्योंकि सभी पदार्थ स्वस्वरूप से भावरूप एवं परस्वरूप से अभावरूप लक्षण वाले ही हैं, जैसे निःश्रेणी की पंक्तियां उभयतः (आजू-बाजू के) दो दीर्घ काष्ठों से बंधी हुई हैं तथैव सभी वस्तुयें भाव-अभावरूप दो स्वभाव से संबंधित हैं। अतः अभाव तुच्छाभावरूप नहीं है। एक द्रव्य की अनेकों पर्यायों में एक दूसरे से पृथक्पना होना, तो इतरेतराभाव का लक्षण था और एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में सर्वथा अभाव होना अत्यंताभाव है जैसे जीव का पुद्गल में अभाव, पुद्गल में धर्मअधर्म द्रव्य का अभाव, धर्मद्रव्य में आकाशद्रव्य का अभाव एवं आकाशादि में कालद्रव्य का अभाव, अर्थात् सभी छहों द्रव्यों का एक-दूसरे में अत्यंत रूप से अभाव होना ही तो अत्यंताभाव है। कहा भी है
अण्णोण्णं पविसंता दिता उग्गासमण्णमण्णस्स ।
मेलंतावि य णिच्चं सगसगभावं ण विजहंति ।। - अर्थ-ये सभी द्रव्य एक दूसरे में अनुप्रवेश किये हुये हैं और एक-दूसरे को अवकाश भी दे रहे हैं, एक दूसरे में दूध और पानी के समान एकमेक होकर मिल भी रहे हैं फिर भी अपने-अपने स्वभाव को छोड़ते हैं।
देखिये ! हमारे और आपके शरीर में अभी छहों द्रव्य भरे हैं, मृतक कलेवर में भी छहों द्रव्य हैं, एक घट में भी छहों द्रव्य भरे हुये हैं। आप प्रश्न करेंगे कि कैसे भरे हुये हैं ? सो सुनिये ! हमारे शरीर में हमारा जीव तो स्वामी है, इसके अतिरिक्त अनंतानंत निगोदिया जीवों से भी यह हमारा शरीर सप्रतिष्ठित है, क्योंकि गोमटसार में कहा है कि
... "पुढवी आदिचउण्हं केवलिआहारदेवणिरियंगा।
अपदिट्ठदा पदेहिं पदिट्ठिदंगा हवे सेसा ॥" अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार केवलियों का शरीर, आहारक शरीर, और देव नारकियों के शरीर ये आठ स्थान निगोदिया जीवों के आश्रय से रहित हैं शेष सभी संसारी प्राणियों के शरीर निगोदिया जीवों से सहित हैं। इसमें प्रतिक्षण अनंतानंत निगोदिया जन्म लेते रहते हैं और मरते रहते हैं। अतः हमारे शरीर के आश्रित अनंतानंत जीवराशि है, पुन: देखिये ! यह शरीर पुद्गलद्रव्य से ही निर्मित है कहा भी है
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