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अभाव एकांत का खंडन ]
प्रथम परिच्छेद
"शरीरवाङ्मनःप्राणापानापुद्गलाना" शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास ये पुद्गलद्रव्य के ही उपकार हैं अतः पौद्गलिक हैं। आगे और चलिये तो धर्म, अधर्म द्रव्य लोकाकाश में तिल में तेल की तरह व्याप्त होकर रह रहे हैं, अमूर्तिक हैं फिर इन दोनों द्रव्यों का अस्तित्व इस शरीर में भी मानना ही होगा, आकाशद्रव्य भी लोकाकाशरूप से असंख्यातप्रदेशी अमूर्तिक है, सभी द्रव्यों को अवकाश देने वाला है, तब शरीर स्थान में भी उसका अस्तित्व हो गया तथैव कालद्रव्य भी लोकाकाश में पूर्णतया स्थित है
"लोयायासपदेसे इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का ।
रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंखदव्वाणि ।। (द्रव्यसंग्रह) अर्थ-इस असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश के एक-एक प्रदेशों पर एक-एक कालाणु स्थित है और वे रत्नराशि के समान पृथक्-पृथक् भी हैं एवं असंख्यात हैं। अतः हमारे शरीर में जितने प्रदेश हैं सर्वत्र काल के अणु अमूर्तिकरूप से ही स्थित हैं। बस ! जीव के समान अजीव घट में भी समझिये। हाँ ! वहाँ इतना अवश्य है कि उस घट के स्थान में अनंतानंत सूक्ष्म जीव भरे हैं क्योंकि उनका अस्तित्व तो सिद्धशिलापर्यंत है।
" आधारे थूलाओ सव्वत्थ णिरंतरा सुहुमा " अर्थात् स्थूल-वादर जीव तो आधार से ही रहते हैं किन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिय (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायिक) जीव सर्वत्र लोकाकाश में निराधार भरे हुये हैं। ये हम और आपकी दृष्टि के द्वारा नहीं जाने जाते हैं, इनके सूक्ष्म नामकर्म का उदय होने से ये जीव न किसी को बाधा देते हैं न किसी से बाधित होते हैं। अपनी आयु के अनुसार ही जन्म-मरण करते रहते हैं इन सूक्ष्म जीवों से लोकाकाश में एक तिलतष क्या अणमात्र भी जगह खाली नहीं रहती तक भी पहुँच चुके हैं फिर भी संसारी हैं मुक्त नहीं हैं, दुःखी ही हैं, जन्म-मरण के दुःखों से अत्यंत त्रस्त हैं, केवल कर्मफलचेतना का अनुभव कर रहे हैं। सिद्धशिला पर पहुँचने मात्र से सुखी नहीं हो सके हैं, अतः इन जीवों से सारा संसार सभी चेतन-अचेतन पदार्थ व्याप्त हो रहे हैं इतने मात्र से अचेतन पदार्थों को चेतन भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि इनसे बाधित होने या बाधा करने का प्रश्न ही नहीं है ।अचेतन में घट, पट, महल, पत्थर की दीवाल आदिकों को अचेतन ही कहना चाहिये क्योंकि इसमें चेतनजीव स्वामीरूप से या निगोदिया जीवों के आश्रित सप्रतिष्ठितरूप से नहीं है । इसलिये “जले विष्णुः स्थले विष्णुः" सिद्धांत के अनुसार या कण-कण में जीव है पृथ्वी आदि जीव का स्वामी जीव है इत्यादि मान्यता के अनुसार सबको सचेतन मानना या किसी को अचेतन नहीं मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पृथ्वी, जल, आदि के पृथ्वीकायिक आदि जीवों के मर जाने पर वे पृथ्वी, जल आदि अचेतन भी सिद्ध हैं। इसी अष्टसहस्री में पहले कारिका में मिट्टी के ढेले आदि को पूर्णतया अचेतन
१. तत्त्वार्थसूत्र, अ० ५ । २. गोम्मटसारजीवकाण्ड ।
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