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अष्टसहस्री
[ कारिका १२
[ अविनाभावाभावे हेतुरहेतुरेव ] ' क्वचित्तदभावेपि' चान्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयवैकल्ये हेतुत्वाघटनात् । स्यादाकूतं ते'न परमार्थतः साधनदूषणप्रयोगो नैरात्म्यवादिनः सिद्धो यतो बहिरन्तश्च परमार्थतः सद्वस्तु साध्यते । न चासिद्धाद्धेतोः साध्यसिद्धिः, अतिप्रसङ्गात्' इति तदपि प्रलापमात्र, तत्त्वतो
[ अविनाभाव के अभाव में हेतु अहेतु है ] एवं क्वचित् मैत्री पुत्रादि में उस विलक्षणरूप हेतु के अभाव का अभाव होने पर भी विलक्षण का सद्भाव होने पर भी अन्यथानुपपत्ति नियमनिश्चयलक्षणहेतु की विकलता होने से हेतुपना नहीं घटता है अर्थात् वे "मैत्रीतनयत्वात्" आदि हेतु में पक्षधर्म, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति का सद्भाव होने पर एक अन्यथानुपपत्ति लक्षणरूप साध्य के साथ हेतु का अविनाभाव निश्चय नहीं होने से वह हेतु हेत्वाभास ही है।
भावार्थ-नैयायिक ने हेतु के पांच अवयव माने हैं। पक्षधर्म, सपक्ष सत्व, विपक्षव्यावृत्ति, अवाधित विषयत्व, असत् प्रतिपक्ष । बौद्धों ने हेतु के तीन अवयव माने हैं। पक्षधर्म, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, इन सबकी मान्यता पर जैनाचार्य समझाते हैं कि यदि हेतु में पांचों अवयव हैं या तीनों अवयव हैं किन्तु हेतु में साध्य के साथ अविनाभावरूप अन्यथानुपपत्ति नहीं है, तब तो वह हेतु अहेतु ही है-हेत्वाभासरूप है । जैसे—“गर्म में स्थित मैत्री का पुत्र काला होना चाहिये क्योंकि वह मैत्री का पुत्र है अन्य विद्यमान मैत्री के पुत्रों के समान। यहाँ पर "मैत्रीतनयत्वात्" इस हेतु में यद्यपि बौद्ध के तीन रूप एवं नैयायिक के पांच रूप घटित हो जाते हैं फिर भी यह हेतु हेत्वाभास है।
इसका स्पष्टीकरण
मैत्री के विद्यमान पांचों पुत्रों में कालेपने को देखकर मैत्री के गर्भस्थ पुत्र को भी जो कि विवादग्रस्त है पक्ष करके उसमें कालेपन को सिद्ध करने के लिये जो "मैत्री का पुत्रत्व" हेतु प्रयुक्त किया गया है वह ठीक नहीं है क्योंकि उसमें गोरेपन की संभावना भी की जा सकती है। यह संभावना तभी संभव है जबकि "कालेपन" के साथ मैत्री पुत्रत्व का अविनाभाव न हो और अविनाभाव का अभाव भी इसलिये है कि कालेपन के साथ मैत्री के पुत्रत्व का न तो सहभाव नियम है, न क्रमभाव नियम है । यद्यपि विद्यमान मैत्री के पूत्रों में 'कालेपन' और 'मैत्री पुत्र' का सहभाव नियम है किन्तु गर्भस्थ में यह नियम लागू नहीं हो सकता है । अत: देखिये ! “मैत्री का पुत्रपना" इस हेतु में पक्षधर्मत्व है, क्योंकि पक्षभूत गर्भस्थ मैत्रीपुत्र में है । सपक्षरूप इन विद्यमान मैत्री पुत्रों में रहने से इस हेतु में सपक्ष सत्त्व भी है। विपक्षभूत गोरे 'चैत्र' के पुत्रों से व्यावृत्त होने से विपक्ष व्यावृत्ति भी है। किसी प्रकार की बाधा नहीं है अतः अबाधित विषयत्व भी है, क्योंकि
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1 क्वचिद् तद्वयाभावेपि इति पा० । (दि० प्र०) 2 नैरा० सौगतस्य । (दि० प्र०) 3 नरा० आह । तदन्यतरापाये साधनदूषणप्रयोगानुपपत्तेरिति हेतुरस्माकं प्रतिवादिनामसिद्धः तस्मादसिद्धाद्धेतोः सकाशाद्वहिरन्तर्वस्तुनः परमार्थसत्त्वसाध्य सिद्धिर्न भवति चेत्तदाऽतिप्रसङ्गः स्यात् । (दि० प्र०)
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