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अष्टसहस्री
अभावैकांत पक्ष के खंडन का सारांश
बौद्धों के यहाँ माध्यमिक एक भेद है, जो सर्वथा शून्यवाद को ही स्वीकार करता है । शून्यवादी - “भावा येन निरुप्यंते तद्रूपं नास्ति तत्त्वतः ।
यस्मादेकमनेकं च रूपं तेषां न विद्यते ॥ "
[ कारिका १२
श्लोकार्थ - जिस एकत्व - अनेकत्व स्वभाव के द्वारा पदार्थों का वर्णन किया जाता है, वास्तव में वह स्वरूप नहीं है एवं वस्तु भी एक-अनेकरूप नहीं है, जो भेद प्रतिभास है वह असत् ही है, अत: जगत् शून्यरूप ही है । जो अंतर्बहिस्तत्त्व हैं वे संवृति - कल्पनारूप हैं, एवं शून्यवाद को सिद्ध करने में जो प्रमाण हेतु आदि हैं वे भी काल्पनिक हैं, क्योंकि नैरात्म्यवाद वेद्य-वेदकभाव से भी शून्य है | एवं स्वपक्ष - साधन - उपादेय और परपक्षदूषण हेयरूप उपाय भी संवृति से ही हैं ।
जैन – आपके यहाँ 'संवृति' शब्द का अर्थ क्या है ? यदि वह अपने स्वरूप से है, तब तो हमारे अनुकुल ही हुआ, वह केवल आपकी धृष्टता की ही सूचक हुई । जैसे आपने संवृति का स्वरूप से अस्तित्व मान लिया है, वैसे ही हमारे यहाँ भी सभी पदार्थों का स्वरूप से अस्तित्व सिद्ध है । यदि आप संवृति का अर्थ पररूप से नहीं है, कहो तो हम भी पररूप से नास्तिधर्म मानते हैं। यदि आप कहें संवृति- विचारों का न होना है, तब तो यह वाक्य भी कैसे बनेगा ? अत: आपके यहाँ कुछ भी सिद्ध नहीं होता है । बड़े ही आश्चर्य की बात है कि दिग्नागाचार्यादि आज भी इस शून्यवाद का वर्णन करते हैं इसमें मोहनीयकर्म के तीव्रउदय के सिवा और कोई कारण नहीं हो सकता है क्योंकि आपके अनुमान, आगम आदि भी सिद्ध नहीं होते हैं ।
यदि आप कहें सुगत आदि भी विभ्रमरूप हैं तब तो यह बतलाइये कि विभ्रम में विभ्रम है या अविभ्रम ? यदि विभ्रम में अविभ्रम है तो सभी विभ्रमरूप सिद्ध नहीं हुये । यदि विभ्रम में भी विभ्रम है तो विभ्रम कैसे रहेगा ? अपितु विभ्रम में विभ्रम के हो जाने से अविभ्रम - सत्य ही सिद्ध हो जावेगा । श्लोकवार्तिक में भी कहा है
तत्र
शौद्धोदने रेव कथं प्रज्ञापराधिनी । बभूवेति वयं ताद्बहुविस्मयमास्महे ॥ तत्राद्यापि जडासक्तास्तमसो नापरं परं । विभ्रमे विभ्रमे तेषां विभ्रमोऽपि न सिद्ध्यति ॥
अतः सर्वथा अभाव - नैरात्म्यवाद भी श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि सर्वथा शून्य मानने से तो शून्य भी सिद्ध नहीं होगा । पुनः अशून्य - अंतर्बहिस्तत्त्वरूप ही जगत् सिद्ध हो जावेगा ।
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