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२४६ ] अष्टसहस्री
[ कारिका १२ कुतोसौ ? विभ्रमेपि विभ्रमे सर्वत्राविभ्रमप्रसङ्गात् । विभ्रमविभ्रमेपि विभ्रमोपगमे स एव' पर्यनुयोगोनवस्था चेति दुरन्तं तमः । तदुक्तं न्यायविनिश्चये ।
भावार्थ-बेचारा बौद्ध जब जैनाचार्यों के उत्तर से झेंपकर शर्मिंदा हो गया तब उसने कहा कि भाई ! यह सारा जगत् मायाजाल के समान नहीं किन्तु साक्षात् मायाजाल ही है । इन्द्रजालिया ने रुपये बनाबना कर दिखा दिए किन्तु भैया ! स्वयं उन रुपयों से मालामाल नहीं हुआ प्रत्युत दिनभर खेल-तमाशे दिखा-दिखाकर मुश्किल से उसे शाम को २-४ रुपये मिले, जिससे पेट भरता है, तो जैसे वे इन्द्रजालिया के खेल में बने हुए रुपया आदि केवल मायारूप हैं वैसे ही जगत् के सारे चेतन-अचेतनपदार्थ केवल मायारूप हैं। अथवा जैसे स्वप्न में मिला हुआ राज्य है या स्वप्न में अपना ही शिर कटा हुआ देखा किन्तु उसका कुछ भी असर नहीं होता है वैसे ही यह सब जगत् यहाँ तक बुद्धभगवान् और उनके सभी शिष्यवर्ग सभी स्वप्न के समान असत्यरूप काल्पनिक हैं।
___ तब जैनाचार्यों ने कहा कि भाई ! हमें ऐसा लगता है कि आपके बुद्धभगवान् की बुद्धि भी मायारूप है और यह बुद्धभगवान् का कथन तो बहुत ही बुद्धिहीनता को सूचित करता है अथवा दर्शनमोहनीय के उदय से दुर्बुद्धि को प्रकट करता है। बस ! उसने कहा कि हमारे बुद्धभगवान् भी भ्रांतिरूप हैं, उनके शिष्य, उनका उपदेश सभी कुछ भ्रांति रूप है हम और आप भी भ्रांतिस्वरूप हैं। तब आचार्य प्रश्न करते हैं कि भाई ! यह सब कुछ बुद्धभगवान् आदि भ्रांत हैं। इस बात में आपको पूर्ण-दृढ़ विश्वास है या इस विषय में भी कुछ भ्रांति है ?
यदि कहो कि हमें पूर्ण विश्वास है, यह सारा जगत् भ्रांतिरूप है तब तो भैया ! आपने कहीं पर तो विश्वास कर ही लिया सर्वत्र भ्रांति कहाँ रही? यदि कहो इस विषय में भी हमें भ्रांति है तब तो भ्रांति में भ्रांति होने से सत्यता का निर्णय हो जाता है। जैसे एक व्यक्ति ने राजदरबार में चोर को उपस्थित किया, उस चोर को निर्दोष सिद्ध करने के लिये दूसरा व्यक्ति आया उसने कहा राजन् ! इसने चोरी नहीं की है चोर और कोई दूसरा होगा। इस पर राजा ने प्रश्न किया कि भाई ! इसने चोरी नहीं की है यह बात तुम सत्य कह रहे हो या झूठ ? तब उसने कहा कि मैं झूठ बोल रहा हूँ तब राजा ने कहा कि इसका मतलब यह हुआ कि यह चोर है। अत: जिसकी चोरी हुई है उसी की बात सत्य सिद्ध हो गई। उसी प्रकार से भ्रांति में भ्रांति होने से तो आस्तिक्यवादी के वास्तविकतत्त्व ही सिद्ध हो जाते हैं और यदि ऐसा कहो कि भ्रांति की भ्रांति में भ्रांति है तो भी पूर्ववत् प्रश्न उठते रहने से कहीं पर भी आपका शून्यवाद ठहर नहीं सकेगा। अतः आपके शून्यवाद की शून्यजितनी ही कीमत हो सकती है न कि अधिक। ___ इसी को न्यायविनिश्चय ग्रन्थ में भी कहा है
1 अंगीक्रियमाणे । (ब्या० प्र०) 2 ता। (ब्या० प्र०) 3 विभ्रमविभ्रमे विभ्रमे किमविभ्रमो विभ्रमोवेत्यादि । (दि० प्र०) 4 ततश्च । (दि० प्र०) 5 महदज्ञानं सौगतस्य । (ब्या० प्र०) 6 सर्वविभ्रमात्मकमिति तत्त्वनिश्चये। (दि० प्र०)
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