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अभाव एकांत का खंडन ]
प्रथम परिच्छेद
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वैसे ही अभाव से कोई ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है और न उस अभाव के आकार का ही हो सकता है, न उस अभाव को जान ही सकता है, क्योंकि अभाव का तो कुछ आकार भी नहीं है, अतः आप अभाव को प्रमेय भी कैसे मानोगे ? एवं उसको विषय करने वाला कौन सा प्रमाण स्वीकार करोगे ? इसलिये आप बौद्ध भावप्रमेयेकांतवादी ही बने रहो यही आपके लिये हितकर है, नहीं तो हम जैनों के समान स्याद्वादी बन जावो बस ! झगड़ा समाप्त हो जावेगा । हम किसी भी ज्ञान को पदार्थ से उत्पन्न हुआ नहीं कहते हैं, हमारे यहां तो मति, श्रुत ज्ञानावरण के क्षयोपशम विशेष से यह आत्मा ही स्वयं ज्ञान के द्वारा पदार्थों को जानता है । प्रत्येक ज्ञान ज्ञानावरण के क्षयोपशम अथवा क्षय के निमित्त से होते हैं न कि पदार्थों से, देखो भाई ! यह आत्मा ही अनंतगुणों का पुंज है उसमें एक ज्ञानगुण भी है, जो ज्योति: स्वरूप है, केवलज्ञानस्वरूप है, लोकालोक प्रकाशी है किन्तु अनादिकाल से इस ज्ञानगुण पर आवरणकर्म आया हुआ है, जो कि ज्ञानगुण को पूर्णतया प्रकट नहीं होने देता है । सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक एकेन्द्रियजीव के भी “पर्याय" नाम का ज्ञान विद्यमान है, जो कि ज्ञान का सबसे छोटा-सा अंश है धीरे-धीरे क्षयोपशम बढ़ते-बढ़ते ज्ञान प्रकट होता चला जाता है और वही श्रुतज्ञानरूप से भावश्रुत होता हुआ केवलज्ञान के लिये बीज बन जाता है। ध्यान के द्वारा मोहनीय कर्म का नाश करके पुनः ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय का भी नाश करके यह जीव अपने केवलज्ञानगुण को पूर्णतया प्रकट कर लेता है, बस लोकालोकप्रकाशी, पूर्ण ज्ञानी केवलो भगवान् बन जाता है । अतः ज्ञान पदार्थों से उत्पन्न न होकर भी भूत, भावी, वर्तमान त्रिकालवर्ती संपूर्ण पदार्थों को जानने की क्षमता रखता है । हम और आपका ज्ञान अभी क्षयोपशमरूप है, अतएव कतिपय पदार्थों को इंद्रियों की सहायता से मन की सहायता से जानता है, एतावता परोक्ष है अथवा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी है किन्तु पदार्थों से उत्पन्न होने वाला नहीं है । इसीलिये हमारे यहाँ एक ज्ञान अनेकों पदार्थों को जानने वाला होने से एकानेकात्मक है। एक ही ज्ञान सामान्य- विशेष इन दोनों गुणों से सहित वस्तु को जानता है, इसमें कोई विवाद नहीं है ।
तात्पर्य यह निकला कि अभाव को प्रमेय कहने पर आपके यहाँ तो एक तीसरे प्रमाण की आवश्यकता भी होती है और तृतीय प्रमाण मानने पर भी आपके सिद्धांत में बाधा आती है, कारण वह प्रमाण अभाव से उत्पन्न तो होगा नहीं, पुन: कैसे जानेगा ? यदि अभाव से उत्पन्न हुये बिना भी उसको जान लेगा, तब तो तदुत्पत्ति, तदाकार और तदध्यवसायरूप आपका सिद्धांत समाप्त हो जावेगा, किंतु हम तो इस अभाव को भावांतररूप मानकर प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ही इसका ज्ञान मानते हैं । अतः कोई दोष नहीं आते हैं, ऐसा समझना चाहिये ।
इस प्रकार से उपर्युक्त दोषों को दूर करने की इच्छा रखने वाले आप बौद्धों के द्वारा अभाव को वस्तु का धर्मरूप ही स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि वस्तु के धर्मभूत-अभाव का प्रतिक्षेप - निराकरण किया ही नहीं जा सकता है । इसलिये भावैकांत को अर्थात् एकांत से भावस्वरूप ही पदार्थ को मानकर अभाव का सर्वथा लोप करने पर किसी की भी समीहितसिद्धि नहीं हो सकती है, ऐसा समझना चाहिये ।
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