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शब्द के नित्यत्व का खंडन ]
प्रथम परिच्छेद
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स्वभाव को नहीं छोड़ेगा तब तक उसमें श्रावणस्वभावता नहीं आवेगी। यह परिवर्तन कथंचित् अनित्य के बिना संभव नहीं है। इस भय से यदि आप शब्द में श्रवणज्ञानोत्पत्ति के पहिले ही श्रवणस्वभावता मानोगे तब पुनः अभिव्यक्ति की कल्पना व्यर्थ है।
तालु आदि व्यापार को शब्द के कारककारण मानों व्यञ्जक नहीं। जैसे घटादि की उत्पत्ति में कुंभकार दंडादि, कारककारण हैं एवं दीपादि घटादि के व्यञ्जककारण हैं। अन्यथा आप सांख्य हो जावेंगे क्योंकि सांख्य घटादि कार्य को पहले से ही सत्रूप (मौजूदरूप) मानता है और व्यञ्जककारणों से अभिव्यक्त-आविर्भाव मानता है उसे भी आपको मानना होगा अर्थात् सांख्य ने मत्पिड में घट का तिरोभाव माना है पुनः कुंभकार आदि से उस घट का आविर्भाव माना है । अतएव उसने प्रागभाव को ही तिरोभाव एवं कार्योत्पाद को ही आविर्भाव नाम दिया है। ___आपने सभी वर्गों को व्यापी और नित्य माना है अतः उनका क्रम से सुनना नहीं बनेगा क्योंकि नित्य. व्यापी शब्दों में देश काल कृत क्रम असंभव है। नित्य में अभिव्यक्ति से क्रम कल्पना करना गलत है । यदि ऐसा मानोगे तो सर्वत्र, सर्वदा सभी ही शब्दों को सुनने का प्रसंग सभी के लिये हो जावेगा तब संकुल-मिश्रितरूप से कलकल ध्वनि ही सुनाई देने लगेगी पुनः शब्दमय ही सारा जगत् हो जावेगा क्योंकि शब्द नित्य, व्यापी हैं एवं सभी की श्रोत्रंद्रियाँ कारण समानरूप से हैं।
यदि आप खण्ड-खण्ड रूप से सर्वत्र उन वर्णों की अभिव्यक्ति मानें तब तो शब्दों में व्यक्त और अव्यक्त दो भेद होने से भेद हो जावेगा। पुनः सभी वर्ण एकानेकात्मक सिद्ध हो जावेंगे। अर्थात् वे वर्ण वर्णरूप से एक व्यक्ताव्यक्तरूप से अनेकरूप सिद्ध हो जावेंगे। यदि खंड-खंडरूप से अभिव्यक्ति मानोगे तब तो सभी काल में सर्वत्र एक साथ सभी शब्दों के सुनने का प्रसंग आ जाने से कल कल शब्द मिश्रितरूप से होता रहेगा किंतु हम स्याद्वादियों के यहाँ ये दोष नहीं हैं। हम तो द्रव्याथिकनय से (शब्द पुद्गल की पर्याय होने से द्रव्य से अभिन्न हैं अतः) शब्द वर्गणाओं को पुद्गलरूप से नित्य मानकर भी उसे पर्याय की अपेक्षा उत्पाद-व्ययरूप से अनित्य मानते हैं । अर्थात् शब्दों के आरंभक पुद्गल जो कि तद्देशकालवर्तीरूप से उपादानकारण हैं और ताल्वादिबहिरंग सहकारीकारण हैं दोनों के समान होने पर भी वर्ण की उत्पत्ति में वक्ता का विज्ञान सहकारीकारण है उसके अंतर के क्रम से शब्दों की क्रम से उत्पत्ति होती है क्योंकि सभी जगह सभी कार्यों का क्रम कारण के क्रम की अपेक्षा रखता है और जो शब्द के कार्यभूत श्रोता का विज्ञान है उसमें भी क्रम की अपेक्षा करके वर्गों का क्रम से ज्ञान होने में कुछ भी विरोध नहीं है। अर्थात् जैसे-जैसे श्रोता को शाब्दिक ज्ञान होता जाता है, वैसे-वैसे शब्दों के अर्थ का जाननारूप फल भी क्रम से ही होता जाता है। अतएव एक साथ सभी वर्गों के सुनाई देने का दोष हमारे यहाँ संभव नहीं है। इसलिये शब्दरूप से परिणत पुद्गल कर्ण द्रिय के निकट आते हैं वे पूर्व और पश्चात् में अस्तित्व से रहित घटादि के समान प्रयत्न के अनंतर होने से प्रयत्न से अविनाभावी पुरुषकृत् ही हैं उन शब्दों का प्रागभाव एवं प्रध्वंसाभाव भी सिद्ध ही है।
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