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प्रथम परिच्छेद
इतरेतराभाव की सिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
__ [ १६६ एव कारणस्य' स्वकार्यात्मना भवतः प्रतिक्षेपायोगात् स्वभावान्तरानपेक्षणवत्,
यदि क्रम से भी अन्वय का विच्छेद मानोगे, तब तो उसमें अर्थक्रिया नहीं बन सकेगी, क्योंकि स्वयं असतरूप (कार्य के काल को नहीं प्राप्त हुआ कारण द्रव्य) में वास्तविकरूप उपकारिता कभी भी बन नहीं सकती है । पुनः किससे किसका आत्मलाभ होगा?
यदि कथंचित अविच्छेद मानो तब तो वह अर्थक्रिया सुघटित ही है, क्योंकि कारण स्वकार्यात्मकरूप से होता है, उसमें प्रतिक्षेपकाल-विलंब नहीं हो सकता है। जैसे कि कार्य स्वभावांतर की अपेक्षा नहीं रखता है । अर्थात् जिस कारण से जो कार्य उत्पन्न होता है उसी से ही वह कार्य होता है न कि अन्य कारणांतर से वह कार्य होता है।
भावार्थ-बौद्धों ने पदार्थों को एकक्षण स्थिर रहने वाला माना है । उनका कहना है कि प्रत्येक पदार्थ एकक्षण के बाद निरवन्य-जड़मूल से समाप्त हो जाता है और दूसरा ही पदार्थ उत्पन्न हो जाता है, किन्तु उन क्षण-क्षण में नष्ट होने वाले पदार्थों में जो अन्वयरूप दिख रहा है वह केवल वासना है -संस्कार से ही वैसा मालूम पड़ता है । अत: कारण तंतु का, मृत्पिड का निरन्वय नाश होकर वस्त्र और घट बनते हैं। कारण कार्य के काल तक नहीं ठहर सकता है, किन्तु जैनाचार्यों ने इसका खंडन कर दिया है।
जैनाचार्य कहते हैं कि यद्यपि सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से एक-एक क्षण में पूर्व पर्याय का नाश और उत्तराकार का उत्पाद हो रहा है फिर भी उन दोनों ही अवस्थाओं में अन्वयरूप से एक द्रव्य का अस्तित्व बना रहता है। सभी चेतन अचेतनद्रव्य अन्वयरूप से अनादि-निधन हैं । अन्वय का विच्छेद-विनाश कभी भी नहीं हो सकता है। यह प्रतिक्षण होने वाली अर्थपर्याय किसी भी बाह्य कारणों की अपेक्षा नहीं रखती है एवं व्यंजनपर्याय में बाह्यकारणकलापों के मिलने
यय, ध्रौव्य होता है। जैसे अंगूठी का विनाश, कंकण का उत्पाद सूनार आदि की अपेक्षा र है एवं उन उत्पाद-विनाश दोनों में ही स्वर्णद्रव्य अन्वयरूप से विद्यमान रहता है। अतः कथंचित्-पर्याय की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय के होने से विच्छेद होता है कथंचित् द्रव्य की अपेक्षा से विच्छेद नहीं होता है और तभी पदार्थों में अर्थक्रिया हो सकती है अन्यथा नहीं।
1 यथा सौगताभ्युपगतं क्षणिकं वस्तुविनाशकाले स्वभावान्तरमन्यकारणं नापेक्षते तस्य यथा प्रतिक्षेपो निराकरणं न संभवति तथा कारणस्य स्वकार्यरूपेण भवतः सतो निराकरणं न घटते । आह सौ० अस्मदभ्युपगतं क्षणिकं वस्तु अन्यकारणमपेक्ष्य उत्पद्यत इति चेत् । स्या० आत्मनैवोत्पत्तुमिच्छोरपि वस्तुनोऽन्यकारणापेक्षणे जाते सति विनश्वरस्यापि वस्तुनोऽन्यकारणापेक्षणं प्रसजति यतः = कोर्थः हे सौ० ! वस्तुन उत्पादविनाशी द्वावपि कारणान्तरानपेक्षणावभ्युपगन्तव्यौ एतेन वस्तुन उत्पादविनाशयोः कारणान्तरानपेक्षणं व्यवस्थापनद्वारेण वस्तुनः स्थितिशीलस्यापि स्वभावान्तरानपेक्षणत्वं प्रतिपादितम् । (दि० प्र०) 2 जायमानस्य । (दि० प्र०)
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