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[ कारिका ११
इति परमार्थतो' 2 भावस्योभयस्य च प्रतिपत्तेरभावं प्रतिपद्यमानः कथमभावप्रतिपत्तौ प्रकृतपर्यनुयोगं कुर्यात् ? न चेदस्वस्थः ' परमार्थतः ', स्वपररूपादिभावाभावलक्षणत्वात्सर्वस्य'
अष्टसहस्री
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि हे भोले भाई ! आप भी चेतनरूप पुरुषतत्त्व को प्रकृतिरूप नहीं मानते हैं और प्रधान को चैतन्यपुरुष का स्वभाव नहीं मानते हैं और तो क्या ? आपने अपने कूटस्थ नित्य में त्रुट्यत् क्षणिक -- निरन्वयक्षणिक रूप अनित्य सिद्धांत को अथवा निरपेक्ष नित्यानित्यरूप यौग के सिद्धांत को या सापेक्षसिद्ध नित्यानित्यरूप स्याद्वाद सिद्धांत को नहीं माना है । अत: आपने भी "अंध सर्प बिलप्रवेश" न्याय से अत्यंताभाव को मान ही लिया है । जैसे अंधा सर्प बिल में नहीं जाना चाहता है और बहुत काल तक घूम घुमाकर कहीं न कहीं यदि घुसता है तो वह बिल में ही घुसता है अतः अंध सर्प बिल प्रवेश न्याय से आप सांख्य भी घूम घुमाकर बेमालूम ही अत्यंताभाव को मान लेते हो अन्यथा आपका पुरुषतत्त्व प्रधान बनेगा और उसी से सृष्टि उत्पन्न होने लगेगी तथा प्रधानतत्त्व उसका भोक्ता बन बैठेगा और भी अनर्थ होंगे । आपके नित्यपक्ष में बौद्ध प्रवेश कर जावेगा । बस ! आप देखते-देखते ही क्षणिकवादी बन जायेंगे, किन्तु यह सब आपको इष्ट नहीं है, अतएव अनिष्ट तत्त्व का परिहार करने के लिये एवं इष्ट तत्त्व की रक्षा करने के लिये आप भी अत्यंताभाव प्रभु की शरण में ही आ जाते हैं ।
इधर बौद्ध अपनी बुद्धि की विशेषता प्रकट करने के लिये दौड़ पड़ते हैं और कहते हैं कि अभाव नाम की चीज को ग्रहण करने वाला कोई प्रमाण ही नहीं है, अतः उस अभाव का ही अभाव है । मतलब यह है कि बौद्धों ने दो ही प्रमाण माने हैं एक प्रत्यक्ष और दूसरा अनुमान । वे कहते हैं कि अभाव इन दोनों प्रमाणों के द्वारा ग्रहण ही नहीं किया जा सकता है क्योंकि “प्रमेयद्वित्व" से ही प्रमाणद्वित्व को हमने माना है अर्थात् विशेष और सामान्यरूप से प्रमाण के द्वारा जानने योग्य प्रमेय दो प्रकार के ही हैं । विशेष को तो निर्विकल्प प्रत्यक्ष ग्रहण कर लेता है और सामान्य को अनुमान ग्रहण कर लेता है । पदार्थ दो प्रकार के ही हैं और उनके ग्रहण करने वाले ज्ञान भी दो ही पर्याप्त हैं । परन्तु इस मान्यता का खंडन जैनाचार्यों ने बड़े ही सुंदर ढंग से किया है ।
जैनाचार्य पूछते हैं कि प्रमेय सामान्य विशेष रूप से दो ही हैं इस बात को ग्रहण करने वाला कौन सा प्रमाण है ? क्योंकि आपका प्रत्यक्ष तो मात्र विशेष को ही ग्रहण करता है एवं सामान्य मात्र को अनुमान । पुनः " जगत में सामान्य विशेष रूप से दो ही प्रमेय हैं अन्य तीन नहीं हैं" इस प्रकार
से ये दोनों प्रमाण तो जानने में असमर्थ ही रहेंगे । यदि आप कहें कि प्रत्यक्ष इन प्रमेय द्वित्व को ही है वह एकान्त कहाँ रहा ? उसने तो सामान्य
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जानना है तब तो प्रत्यक्ष का विशेष दोनों को जान लिया।
1 शब्दात् । ( व्या० प्र० ) 2 स्थित्यादिरूपस्य । ( व्या० प्र०) परमार्थ तोभावस्याभावस्योभयस्य इति पा० । ( ब्या० प्र० ) 3 अन्यापोहस्य | ( व्या० प्र० ) 4 भावाभावात्मकस्य । सकाशात् । (ब्या० प्र० ) 5 अस्वस्थः कथं न कोर्थः स्वस्थश्चेत् प्रकृतपर्यनुयोगं कथं कुर्यात् । ( दि० प्र०) 6 कथमियं भावाभावप्रतिपत्तिः सत्या इत्याशंकायामाह । ( दि० प्र०) 7 वस्तुन: । (ब्या० प्र० )
विषय एक विशेष यदि आप कहें कि
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