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इतरेतराभा की वसिद्धि ]
अर्थात् वस्तु का अस्तित्व धर्म सामान्य है और वह सभी चराचर पदार्थों में पाया जाता है, उसे ही सत्ता कहते हैं । सामान्य की अपेक्षा वह सत्ता एक है, किन्तु भेद की अपेक्षा उस सत्ता के महासत्ता और अवांतरसत्ता ऐसे दो भेद माने हैं । प्रत्येक पदार्थों की पृथक्-पृथक् सत्ता अवांतरसत्ता कहलाती हैं और सत्ता सामान्य को देखने से वह एक विश्वव्यापी ही है ।
प्रथम परिच्छेद
विशेषार्थ - एक बार द्रव्य का लक्षण सत् कह देने से आचार्य उस सत् को ही द्रव्यरूप सिद्ध कर रहे हैं । जैसे- असु भुवि अस् धातु भू— होने अर्थ में है । इस अस् धातु से ही सत् शब्द निष्पन्न होता है "अस्तीति सत्" जो है- विद्यमान है उसे सत् कहते हैं तथैव "भू सत्तायां" इस नियम के अनुसार भू धातु सत्ता अर्थ में है । मतलब भू धातु सत् अर्थ में है और अस् ( सत्) धातु भू अर्थ में है । उसी प्रकार से द्रव्य का लक्षण सत् है और सत् का लक्षण द्रव्य है । यहाँ पर जैनाचार्य सत्ता को अनंत गुण पर्यायों को प्राप्त करने वाली मानते हैं एवं उस सत्ता में उत्पद्यते - उत्पन्न होता है, विनश्यति - नष्ट होता है और तिष्ठति - ठहरता है इत्यादिरूप से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य को त्रिकाल की अपेक्षा से भी नव भेदरूप करके पुनः उस एक-एक में भी नव-नव भेद करके ८१ भेद कर दिये हैं । आचार्य श्री विद्यानंदस्वामी ने तो इस सत्ता को द्रव्यरूप सिद्ध करते हुये क्षेत्र, काल और भावरूप भी सिद्ध कर दिया है, क्योंकि जगत में सत्ता को छोड़कर और कुछ है ही नहीं । यदि कुछ मानो तो वह आकाश पुष्पवत् असत् ही है ।
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ये द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सत्ता के बिना अपने अस्तित्व को कायम ही नहीं कर सकते हैं, हम और आप क्या सारे विश्व के चराचर पदार्थ सत्ता को छोड़कर अपने अस्तित्व को कायम करने में असमर्थ हैं । उस सत्ता का विश्व में ही क्या अलोकाकाश में भी एकच्छत्र साम्राज्य फैला हुआ है । चक्रवर्ती, तीर्थंकर भगवान्, अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठी सभी इस सत्ता महाप्रभु के आश्रित हैं । अतः पराधीन हैं और तो क्या भगवान् का केवलज्ञान भी अनंतानंत लोक और अलोक को जानने में समर्थ होते हुये भी इस सत्ता के ही तो आधीन है । वह भी इस सत्ता महाराजाधिराज के शासन के बाहर नहीं है । उस केवलज्ञान से भी अधिक इसका साम्राज्य विस्तृत है, क्योंकि उस ज्ञान पर भी इसने अपना शासन जमा रखा है । केवलज्ञान यद्यपि सारे चराचर लोक और अलोक को व्याप्त करके स्थित है, फिर भी इस सत्ता महाप्रभु के आश्रित ही उसे रहना पड़ रहा है । अतः यह सत्ता एक महान् शक्तिशाली प्रभु ईश्वर – समर्थ है ।
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एक लौकिक उदाहरण है कि एक शिष्य ने गुरुजी से पूछा कि हे गुरुदेव ! मैं किसकी उपासना करू ? तब गुरुदेव ने कहा कि लम्बोदर गणेश भगवान् सबसे बड़े हैं, उनकी पूजा किया करो। वह शिष्य एक दिन पूजा कर रहा था कि इसी बीच में एक चूहा आया और गणेश जो के सिर पर बैठ गया तो शिष्य ने समझा कि शायद ये उन्दुर महाराज गणेशजी से बड़े हैं अन्यथा इनके सिर पर क्यों बैठते ? इसके बाद एक बिल्ली उस चूहे पर लपकी तो चूहा भाग गया और वह गणेशजी के सिर पर बैठकर उसे ताकने लगी कि इतने में शिष्य ने समझा कि यह बिल्ली महारानी तो उन्दुर महाराज से भी प्रधान मालूम पड़ रही है । इतने में ही उधर से कुत्ता झपटा और बिल्ली पर लपका कि बिल्ली तो खिसियानी होकर भाग गई और कुत्ता खड़ा खड़ा भोंकने लगा। बस ! शिष्य को निश्चित हो गया कि यही श्वानराज सबसे बड़ा है इसी की उपासना करना चाहिये ।
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