________________
अत्यन्ताभाव की सिद्धि ]
होवे वह प्रध्वंस है और इतरेतराभाव के अभाव या सद्भाव में कार्य की उत्पत्ति या विनाश नहीं है । जैसे जल और अनल में इतरेतराभाव तो है किन्तु जल के अभाव में अनल की उत्पत्ति का कोई नियम नहीं है तथा जल के सद्भाव में अनल का विनाश भी नहीं है, अतः जल, अनल में इतरेतराभाव है । प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव नहीं है । प्रागभाव का अभाव होकर ही घट कार्य होता है और प्रध्वंसाभाव का अभाव करके ही कार्य-घट का विनाश होता है दोनों की मौजूदगी में नहीं होता है ।
प्रथम परिच्छेद
घट और पट में इतरेतराभाव है पट कभी नष्ट होकर मिट्टीरूप हो गया कालांतर में वही मिट्टी घट बन जाती है, तथैव जलबिंदु समुद्र के सीप में मोतीरूप पृथ्वीकायिक बन जाते हैं । पृथ्वीकायिक चंद्रकांतमणि से चंद्रमा की किरणों का स्पर्श होने पर पानी झरने लगता है, सूर्यकांतमणि से अग्नि की उत्पत्ति हो जाती है । अत: इस प्रकार के कारणों के मिल जाने पर पट के घटरूप होने में कोई विरोध नहीं है । पुद्गल द्रव्य की अनेक पर्यायों का भिन्न-भिन्न परिणमन देखा जाता है, किन्तु इस प्रकार से चेतन और अचेतन में कदाचित् तादात्म्यरूप से परिणमन हो जावे ऐसा शक्य नहीं । अतः भिन्न-भिन्न तत्त्व में अत्यंताभाव है ।
[ २१५
यदि विज्ञानाद्वैतवादी यह कहे कि ज्ञानमात्र एक तत्त्व को मानने पर हमारे यहाँ कुछ भी दोष सम्भव नहीं है क्योंकि हमने ज्ञान और ज्ञेयाकार में व्यावृत्ति नहीं मानी है, तब तो ज्ञेयाकार विषय में ज्ञान का अनुप्रवेश हो जाने से एक ज्ञान ही बचेगा एवं दोनों में अभेद होने से एक के अभाव में दूसरा ज्ञान भी अभावरूप हो जावेगा पुनः शून्यवाद ही शेष रहेगा, अतएव निर्विकल्पज्ञान का स्वलक्षण स्वरूप तो सिद्ध ही है, वह ज्ञेयाकाररूप स्वभावान्तर से भिन्न है, इसलिये आपके यहाँ भी इतरेतराभाव सिद्ध है । प्रत्येक पदार्थों में कार्यभेद होने से स्वभावभेद पाये जाते हैं, जैसे जीव में सुख-दुःखादिभेद देखे जाते हैं ।
बौद्ध - आपके यहाँ "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" यह सत् का लक्षण है पुनः यदि जीवादि द्रव्य से उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य अभिन्न हैं, तो सब एकरूप संकर हो जावेंगे, यदि भिन्न मानों तब तो उत्पादादि एक-एक में भी तीन लक्षण मानने होंगे, क्योंकि वे प्रत्येक सत्रूप हैं । अन्यथा - वे एक-एक असत्रूप हो जायेंगे क्योंकि सत् का लक्षण त्रयात्मक है ।
Jain Education International
जैन - यह कथन ठीक नहीं है हमने तो भिन्नाभिन्नरूप दोनों पक्षों को ही कथंचित् स्वीकार किया है। उन उत्पाद, व्यय ध्रौव्य, को कथंचित् उत्पादिमान् द्रव्य से अन्वयरूप की अपेक्षा से अभेद स्वीकार करने पर स्थिति ही उत्पन्न होती है स्थिति ही नष्ट होती है इत्यादि । कथञ्चित् पर्याय की अपेक्षा से उन्हीं स्थिति आदि का स्थित्यादिमान् से भेद स्वीकार करने पर भी प्रत्येक में त्रिलक्षण सिद्ध हैं । इसी प्रकार से तीन काल की अपेक्षा से भी त्रिलक्षणता सिद्ध है, क्योंकि जीवादि वस्तु अन्वित द्रव्यरूप से कालत्रय व्यापी हैं किन्तु निरन्वय क्षणिक एवं नित्य — कूटस्थ एकान्त में यह व्यवस्था असंभव है । अर्थात् जीवादि वस्तु में - तिष्ठति, स्थास्यति, स्थितं । नष्टं, नश्यति, नंक्ष्यति । . उत्पन्नं, उत्पद्यते, उत्पत्स्यते । इन नव भेदों में भी प्रत्येक के नव-नव भेद होने से ८१ भेद वस्तु के सिद्ध हो जाते हैं । अर्थात् ' तिष्ठति' में स्वकीय वर्तमान काल की अपेक्षा से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org