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[ कारिका ११
सिद्ध हैं, यथा तिष्ठति में- तिष्ठति, उत्पद्यते विनश्यति । भविष्यत् काल की अपेक्षा स्थास्यति, उत्पत्स्यते, विनंक्ष्यति । और अपने पूर्वकाल की अपेक्षा से स्थितं, उत्पन्नं विनष्टं । ये नव भेद हो गये तथैव 'स्थास्यति' में नव भेद कीजिये एवं 'स्थितं' में भी नव भेद कीजिये । उसी प्रकार से उत्पन्नं, उत्पत्स्यते, उत्पद्यते और नश्यति, नष्टं विनंक्ष्यति में भी नव-नव भेद कीजिये सब मिलाकर ८१ हो जाते हैं ।
अष्टसहस्री
जीव, पुद्गलादि छह द्रव्य के भेद से अशुद्ध द्रव्य अनंत पर्यायात्मक हैं, तथैव शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा से "शुद्ध सन्मात्रद्रव्य" है । वह सत्त्व ही "द्रवति, द्रोष्यति, अदुद्रुवत् इति द्रव्यं" लक्षण से द्रव्य है । "क्षीयंते, क्षेष्यंते, क्षिताश्चास्मिन् पदार्था इति क्षेत्र" से क्षेत्ररूप हैं ( क्षिति धातु निवास अर्थ में है ) “कल्यंते, कलयिष्यंते, कलिताश्चास्मादिति काल:" लक्षण से वह सत्ता कालरूप है । ( कलि धातु रहने अर्थ में भी है)
तथा "भवति, भविष्यति, अभूदिति भावः - पर्यायः इति सत्ता एव विशेष्येते ।" इन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से विशिष्ट सत्ता एक है अनन्त पर्यायात्मक है । यह सत्ता परस्पर व्यावृत्त स्वभाव वाले अनंत गुण पर्यायों को प्रतिक्षण प्राप्त करती है ।
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इस सत्ता में भी 'तिष्ठति' आदि प्रकार से ८१ भेद कर लेना । अन्यत्र भी सत्ता का लक्षण कहा है " सत्ता सकलपदार्था, सविश्वरूपास्त्वनन्तपर्याया । स्थिति भंगोत्पादार्था, सप्रतिपक्षाभवत्येका ।।' इस प्रकार पर्यायार्थिकनय की प्रधानता से द्रव्यार्थिकनय को गौण करने से सभी में स्वभावान्तर से भिन्नता प्रसिद्ध है, वही इतरेतराभाव है, वह सिद्ध हुआ । "स्वभावांतरात् स्वभावव्यावृत्तिः इतरेतराभावः " ।
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