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इतरेतराभाव की सिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
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इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि आपका यह कथन कथमपि श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष से ही सम्बन्ध का अनुभव आ रहा है "प्रतीतेरपलापः कतुं न शक्यते" अर्थात् जिसका अनुभव आ रहा है उसका अपलाप करना शक्य नहीं है। देखिये! तन्तओं का सम्बन्धरूप वस्त्र प्रत्यक्ष से दिखाई दे रहा है । आप बौद्ध यदि सम्बन्ध को नहीं मानोगे तो रस्सी, बाँस इत्यादि को खींच नहीं सकोगे क्योंकि यदि रस्सी का एक छोर अन्य उसके भागों से पृथक् है-सम्बन्ध रहित है तो उसको एक तरफ से खींचने से आगे की सारी रस्सी खिची हुई चली नहीं आनी चाहिये। फिर कुयें से पानी भरते हुये क्या दशा होगी ? गुरुजी को प्यास लगने पर शिष्य पानी भरने जावेगा तो वह आपके सिद्धान्त के अनुसार रस्सी से बंधे हुये घट को ऊपर कैसे खींचेगा? क्योंकि उसे तो ज्ञात है कि रस्सी के सभी परमाणु पृथक्-पृथक् बिखरे हुये हैं रस्सी के बनने में जब उनका सम्बन्ध ही नहीं है पुनः उस रस्सी के खींचने से रस्सी के साथ घड़ा ऊपर कैसे आवेगा? तो विद्यार्थी घड़े को कुयें में डालकर ही वापस आ जावेगा और गुरुजी प्यासे ही मुख ताकते रह जायेंगे।
अतः इन सम्बन्ध के व्यवहारों को तो देखकर आपको सम्बन्ध मानना ही पड़ेगा वह भी संवृति से नहीं, किन्तु वास्तविकता से ही मानना पड़ेगा, क्योंकि कल्पना से रस्सी बनने से उससे कोई काम होते हुये आज तक किसी ने नहीं देखा है। देखिये ! सम्बन्ध तो यही है कि दो वस्तुओं की विशिष्ट-पृथक् जो अवस्था है वह बदलकर एक नई संश्लिष्ट अवस्थारूप हो जावे, यह अवस्था से अवस्थान्तररूप परिवर्तन वस्तु के स्निग्धत्व और रुक्षत्व के कारण ही हुआ करता है । आठ लकड़ियों के सम्बन्ध से एक खाट बनती है। तीन चार लकड़ी के सम्बन्ध से पाटा बनता है इत्यादि बहुत प्रकार के सम्बन्ध पाये जाते हैं यन्त्रों में कल-पुरजों के सम्बन्ध से आविष्कार होकर मोटर, रेलगाड़ी, हवाई जहाज आदि वाहन बन जाते हैं।
कहीं पर एक दूसरे के प्रदेशों का अनुप्रवेश होने रूप सम्बन्ध होता है जैसे सत्तु और जल के प्रदेश या दूध और जल के प्रदेश परस्पर मिश्रित हो जाते हैं। कहीं पर श्लेषमात्र सम्बन्ध होता है जैसे दो अंगुलियों का श्लेष होता है। आप अंश नाम से घबराते हैं। हम परमाणु में अवयव--भागरूप अंश तो नहीं मानते हैं किन्तु स्वभावभेदरूप अंश अवश्य मानते हैं। जब कभी एक परमाणु अन्य परमाणुओं के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होता है वह दिशादि के स्वभावभेद से प्राप्त होता है इसीलिये तो वे सब परमाणु उस एक अणुमात्र नहीं हो जाते हैं भले ही एक प्रदेश पर ठहर जावें क्योंकि सघन स्कन्धरूप हो चुके हैं फिर भी उन सब परमाणुओं.की सत्ता पृथक् है अतः कथंचित् सघन संघात से स्कन्ध होकर सम्बन्ध हो चुका है कथंचित् स्वभाव भेद से सभी परमाणु अपनी-अपनी सत्ता को लिये हुये हैं । आपने जो प्रश्न किया था कि सम्बन्ध निष्पन्न दो वस्तुओं में होता है या अनिष्पन्न ? उसका उत्तर यही है कि निष्पन्न दो वस्तुओं में सम्बन्ध होता है और सम्बन्ध के बाद एक जात्यन्तर-तृतीय अवस्था ही बन जाती है । यथा-चूना और हल्दी के सम्बन्ध से लाल वर्ण हो जाता है । जीव और कर्म से संसारावस्था हो जाती है। दही और शक्कर (चीनी) के सम्बन्ध से श्रीखण्ड बन जाता है इत्यादि । एवं कार्यकारण भाव का सम्बन्ध कारण के निष्पन्न और कार्य के अनिष्पन्न में होता है । दोनों ही अनिष्पन्नअसत् हों तो सम्बन्ध नहीं हो सकेगा । जैसे बंध्या के पुत्र से आकाश फूल की माला का सम्बन्ध असम्भव है। इस प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की निकटता की अपेक्षा से सम्बन्ध के चार भेद
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