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अष्टसहस्री
[ कारिका ११
रापेक्षया सकृदसकृच्च सन्तानान्तरभावस्वभावभेदाः परस्परं व्यावृत्ता न भवेयुः । तदेवं
सहकारीकारणों की अपेक्षा से एक साथ और क्रमशः सन्तानान्तर-संवित् सन्तान से भिन्न पदार्थों के स्वभावभेद परस्पर में व्यावृत्त न होवें । अर्थात् सभी पदार्थों में स्वभावभेद परस्पर में व्यावृत्तरूप पृथक्-पृथक् सिद्ध ही हैं ।
विशेषार्थ-बौद्धों ने सम्बन्ध को नहीं माना है इस पर प्रमेयकमलमार्तण्ड में भी सम्बन्ध के सदभाव को सिद्ध करते हये श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने अत्यत्तम वर्णन किया है। यथा बौद्धज वस्तु का किसी के साथ भी किसी प्रकार से भी सम्बन्ध नहीं मानते हैं अतः उनके यहाँ अवयवी, स्कन्ध, स्थूलता आदिरूप वस्तुयें ही नहीं हैं। उनका कहना है कि पदार्थों में परतन्त्रस्वरूप या रूप श्लेष स्वरूप कोई भी सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है । घट के एक-एक परमाणु पृथक्-पृथक ही हैं। पुस्तक के भी प्रत्येक परमाणु पृथक्-पृथक् ही हैं ये घट एवं पुस्तक आदि पदार्थ जो अपने को स्थिर, स्थल आकार के दिख रहे हैं यह केवल संवृतिदेवी का ही प्रसाद है और वह संवृति तो असत्य है, कल्पनामात्र ही है। अतः परतन्त्रस्वरूप सम्बन्ध को मानने पर तो प्रश्न होता है कि यह सम्बन्ध निष्पन्न हुये दो पदार्थों में होता है या अनिष्पन्न ? निष्पन्न हुए दो पदार्थों का सम्बन्ध कहो तब तो उचित नहीं है क्योंकि जब दोनों बने हुये हैं फिर उनमें सम्बन्ध क्या होगा? यदि अनिष्पन्न में कहो तो असत्रूप आकाश कमल का बन्ध्या पुत्र से क्या सम्बन्ध होगा?
यदि श्लेष सम्बन्ध कहो तो भी वह श्लेष संबंध एकदेश से होता है या सर्वदेश से ? यदि एक देश से अणु में किसी का सम्बन्ध मानों तब तो सम्बन्धित होने वाले अन्य परमाणु उस एक अणु से सम्बन्ध करते हुये पृथक्-पथक् ही रहेंगे या अपृथक्-एकरूप हो जावेंगे ? पृथक्-पृथक् कहो तो सम्बन्ध क्या रहा? अपृथक् कहो तो सब परमाणु मिलकर एक अणुमात्र ही हो जावेंगे।
दूसरी बात यह है कि यह सम्बन्ध पर की अपेक्षा तो अवश्य ही रखता है क्योंकि सम्बन्ध और विरोध ये दोनों ही द्विष्ट हैं दो के बिना नहीं हो सकते हैं। जैसे कारण मृत्पिड कार्य घट की अपेक्षा रखता है और कार्य घट कारणरूप मृत्पिड की। कारण के समय कार्य उत्पन्न ही नहीं हुआ है एवं कार्य के समय कारण समाप्त हो चुका है । पुनः कार्यकारण में परतन्त्र सम्बन्ध कैसे हो सकेगा?
एक बात यह भी है कि यह सम्बन्ध अपने दोनों सम्बन्धी वस्तुओं से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न कहो तो सम्बन्ध तो एक है उसका उन दो सम्बन्धियों के साथ कौन सा सम्बन्ध है ? एवं कार्यकारणभाव सहभावी तो हैं नहीं अतः उनमें भी सम्बन्ध कहना शक्य नहीं है। यदि सम्बन्धियों से सम्बन्ध को अभिन्न कहो तो दोनों ही सम्बन्धी और सम्बन्ध ये पृथक् कैसे मालूम पड़ेंगे? इत्यादि दोषों के आने से सम्बन्ध नाम की कुछ भी चीज सिद्ध नहीं हो सकती है। इस प्रकार से बौद्ध ने अपना लम्बा चौड़ा पूर्वपक्ष रखा है।
1 युगपत् । (ब्या० प्र०) 2 सन्तानान्तरभूतसंवन्ध्यन्तरापेक्षया विवक्षितसन्तानस्य सन्तानान्तरत्ववचनम् । (दि० प्र०) 3 क्षणिकापेक्षया सन्तानान्तरभावो नित्यः नित्यापेक्षया संतानान्तरभावः क्षणिकस्तयोः स्वभावभेदारन्योन्यं व्यावत्ता भवेयुः । (दि० प्र०) 4 उक्तप्रकारेण । (दि० प्र०)
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