________________
१८४ ]
अष्टसहस्री
[ कारिका ११
इति चेन्न', एमपि ' संवित्तेः ' स्वलक्षणप्रत्यक्षवृत्तावपि ' संवेद्या कारविवेक' स्वभावान्तरानुपलब्धेः स्वभावव्यावृत्तिः स्वभावान्तरात्सिद्धेति' कथं तल्लक्षणान्यापोहव्यतिक्रमः सौगतस्य शक्यः कर्तुम् ?
स्वयं वह निर्विकल्पबुद्धि ही प्रकाशित हो रही है । अर्थात् ज्ञान के द्वारा ग्रहण करने योग्य कोई भी विषयभूत पदार्थ जगत् में नहीं है और उस ज्ञान को भी ग्रहण करने वाला कोई नहीं है, अतः ग्रहण करने योग्य और ग्रहण करने वालेरूप भेदभाव से रहित एक निर्विकल्पज्ञान ही विज्ञानतत्त्व है
जैन - इस प्रकार से ज्ञान में स्वलक्षण-प्रत्यक्ष की वृत्ति के होने पर भी संवेद्याकार - ज्ञेयाकार भेदरूप स्वभावांतर की उपलब्धि न होने से स्वभावांतर - भिन्नस्वभाव से स्वभाव की व्यावृत्ति सिद्ध ही है ।
पुन: इस प्रकार से आप सौगत के द्वारा "स्वभावांतरात्स्वभावव्यावृत्तिः " रूप लक्षण वाले अन्यापोह का व्यतिक्रम करना कैसे शक्य होगा ?
भावार्थ- आप विज्ञानाद्वैतवादी के यहाँ भी निर्विकल्पज्ञान का स्वलक्षणस्वरूप तो सिद्ध है, किंतु ज्ञेयाकाररूप स्वभावांतर से व्यावृत्ति भी तो है ही है । अतः इतरेतराभाव सिद्ध ही है । अन्यथा ज्ञान में ज्ञेयाकार की व्यावृत्ति (अभाव) नहीं मानोगे, तब तो उपर्युक्त कथनानुसार दोनों ही एकरूप हो जाने से दोनों में से किसी एक की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि दोनों में से एक दूसरे की व्यावृत्ति - पृथक्पना न होने से दोनों एकमेकरूप होकर या ज्ञानरूप ही हो जावेंगे, या ज्ञेयाकाररूप ही । पुनः एक के अभाव में दूसरे का सद्भाव भी सिद्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि दोनों एकमेक हो चुके हैं | अतः आपके यहाँ भी ज्ञान और ज्ञेयाकार में इतरेतराभाव सिद्ध ही है आप उसका लोप नहीं कर सकते हैं । अर्थात् यदि आप विज्ञानाद्वैतवादी ज्ञान को निरंश मानते हैं और जानने वाला मानते हैं तथा जानने योग्य चेतन-अचेतनरूप ज्ञेयपदार्थों को अविद्या से कल्पित मानते हैं, अतः ज्ञेय से आपका ज्ञान व्यावृत्त - पृथक् तो है ही है और उस ज्ञान का ज्ञेय से पृथक् होना ही इतरेतरा भाव है ।
1 स्या० एवमपि न संविन्मात्रस्य स्वस्वरूपानुभवन् प्रवर्त्तनेपि वेद्याकाररहिताऽन्यस्वभावादर्शनात् कोथंः ज्ञानस्य संविदाकारलक्षणस्वरूपानुभवनम् । स्वभावः । संवेद्याकाराननुभवनं स्वभावान्तरं तस्मात् स्वभावव्यावृत्तिः सिद्धये दिति स्वभावान्तरात् स्वभावव्यावृत्तिलक्षणान्यापोहानङ्गीकारः सौगतेन कथं कर्तुं शक्यः न कथमपि । स्या० यथा संविन्मात्रवादिना तथा चित्रकज्ञानवादिनापि विचित्रार्थनिर्भासेपि रक्तपीतादीनामन्योन्यव्यावृत्ति रंगीकर्तव्या । अन्यथा व्यावृत्तेरभावे चित्रप्रतिभास एव न संभवति । यथैकस्मिन्नेव नीलादो निर्भासे चित्रप्रतिभासो न न केवलं निर्भासे लोहितादीनामपि परस्परव्यावृत्तिरभ्युपगमनीया किन्तु बहिरर्थानां नीलादीनामपि परस्परव्यावृत्तिर्मान्या । अन्यथा तेषामभेदस्वभावापद्यते । यथा नीलादीनां मध्य एकस्मिन्नीलादावभेदस्वभावापद्यते । ( दि० प्र०) 2 ज्ञानस्य । ( दि० प्र० ) 3 सचेतनस्वरूपस्य । ( दि० प्र०) 4 व्यावृत्तिः । ( दि० प्र० ) 5 वेद्याकारविवेकरूपाद्विशेष्याद् दृश्यात् । (दि० प्र० ) 6 सिद्धयेत् इति पा० । ( दि० प्र०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org