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इतरेतराभाव की सिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
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रेकस्वभावं तद्वद्वेदनं बहिर्द्रव्यं चेति शक्यं वक्तुं यतोऽसिद्धो हेतुः स्यात्, तस्याप्यबाधितप्रतीतिसिद्धत्वात् । अन्यथा द्रव्यमेव स्यान्न रूपादयः । एतेन चित्रज्ञानमेव स्यान्न तल्लो - हितादिनिर्भासा इत्युपदर्शितम् । शक्यं हि वक्तुं स्वभावैकत्वेपि निर्भासवैलक्षण्यं' 'करणसामग्रीभेदमनुविदध्याद्', 'दूरासन्नैकार्थोपनिबद्ध' नानादर्शन निर्भासवत् । यथैव हि चित्रपटादिद्रव्यमेकस्वभावमपि चक्षुरादिकरणसामग्रीभेदाद्रूपादि विलक्षणाकारं तदनुविधानात् तथा" चित्रज्ञानमपि नानान्तःकरणवासनासामग्रीभेदाद्विलक्षणलोहितादिनिर्भासम् ।
सिद्धि होती है ।" क्योंकि वे लाल, पीले, नीले आदि प्रतिभास हो अथवा नीले, पीले आदि आकार ही अनेक स्वभाववाले हैं, ऐसा नहीं है ।
पुनः उसी प्रकार से चित्र पटादि का ज्ञान और बाह्यपदार्थ एक स्वभाववाले ही हैं, ऐसा कहना शक्य नहीं है कि जिससे "एकानेकस्वभावत्वात् " यह हेतु असिद्ध हो सके क्योंकि केवल भिन्न-भिन्न प्रतिभास ही नहीं, किन्तु उनके ज्ञान की एवं बाह्यपदार्थों की भी प्रतीति अबाधितरूप से सिद्ध हो रही है । अन्यथा अबाधितरूप उस ज्ञान अथवा बाह्य द्रव्य की प्रतीति होने पर भी यदि आप कहें कि नहीं है, तब तो द्रव्य ही सिद्ध होगा न कि रूपादिक ।
अनेक स्वभाव वाले ही घटादि द्रव्य हैं उससे व्यतिरिक्त रूपादि नहीं हैं ऐसा मानने पर चित्रज्ञान ही रहेगा किंतु उसके लाल, पीले, नीले आदि प्रतिभास नहीं सिद्ध हो सकेंगे ऐसा उपर्युक्त कथन का अभिप्राय समझना चाहिये क्योंकि हम ऐसा कह सकते हैं कि - स्वभाव में एकपना होने पर भी भिन्न-भिन्न प्रतिभास-ज्ञान करणसामग्री के भेद का अनुसरण करता है । जैसे कि दूर और निकटवर्ती मनुष्यों को एक पदार्थ में उपनिबद्ध नाना- दर्शन का प्रतिभास भिन्न-भिन्न हो रहा है ।
जिस प्रकार से चित्रपट आदि एकस्वभाव वाले हैं, फिर भी चक्षुआदि करणसामग्री के भेद से रूपादि विलक्षण - भिन्न-भिन्न आकार को धारण करते हैं, क्योंकि चक्षु आदि के द्वारा उनका अन्वयव्यतिरेक पाया जाता है । उसी प्रकार से चित्रज्ञान में भी नानापुरुषों के नाना अंतःकरणरूप वासनासामग्री के भेद से भिन्न-भिन्न लाल, पीले आदि प्रतिभास होते हैं ।
1 स्या० हे सौगत ! त्वया एकानेकस्वभावत्वादिति हेतोस्तद्वतस्तेभ्यो व्यावृत्तिरभ्युपगन्तव्या । यदि त्वमेवं कथयिष्यसि हे स्याद्वादिन् ! लोके रूपादय एक प्रतीयन्ते ततस्त एव सन्ति न द्रव्यमिति = स्या० हे सौगत ! प्रत्यक्षेण प्रतीयमानस्य द्रव्यस्यांगीकारं कुरु । अन्यथा यद्यङ्गीकारं न कुरुषे तदा ममाप्यभिप्रायेण लोके द्रव्यमेव स्यान्न रूपादय इति समः समाधिः । (दि० प्र०) 2 कर्तृ । ( दि० प्र० ) 3 इन्द्रिय । ( दि० प्र०) 4 कर्म । ( दि० प्र० ) 5 यशः । ( दि० प्र० ) 6 चक्षुः । बस । ( दि० प्र० ) 7 पुरुषाणाम् । ( दि० प्र० ) 8 प्राणादि । ( दि० प्र० ) 9 रसादि । ( दि० प्र० ) 10 बस: । सम्पद्यते । ( दि० प्र० ) 11 सामग्रीभेदाद् वैलक्षणप्रकारेण । (दि० प्र० ) 12 करणसामग्री भेदानुविधानमात्रं नास्ति किन्तु करणसामग्रीभेदात् स्वरूपेणाप्यस्ति भेद: । ( दि० प्र०)
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