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अष्टसहस्र
[ ज्ञानभेदात् वस्तूनां स्वभावभेदोऽपि भवेदेव ]
तथानभ्युपगमे' प्रतिपुरुषं विषयस्वभावभेदो' वा सामग्रीसंबन्धभेदात् । क्वचिदेकत्रार्थे दूरस्थ पुरुषस्यान्यो हि दूरे देशसामग्री संबन्धोन्यश्चासन्नदेशसामग्री संबन्धः । इति दूरासन्ना - नामेकत्र वस्तुन्युपनिबद्धनानादर्शनानां पुरुषाणां निर्भासभेदात्तद्विषयस्य' वस्तुनोपि स्वभावभेदोस्तु विशेषाभावात् करणसामग्रीभेदवद्वरादिदेशसामग्री संबन्ध भेदस्यापि विषयस्वभावभे
[ कारिका ११
[ ज्ञान के भेद से वस्तु के स्वभाव में भी भेद मानना चाहिये ]
अथवा उस प्रकार से स्वीकार न करने पर पुरुष - पुरुष के प्रति विषय में स्वभावभेद हो जावेगा, क्योंकि सामग्री के संबंध में भेद पाया जाता है ।
भावार्थ - इस कथन से तो जैनमत ही सिद्ध हो जावेगा, क्योंकि जैनी ही पुरुष - पुरुष के प्रति विषय में स्वभावभेद स्वीकार करते हैं । यथा -- एक मृतक वेश्या का कलेवर वन में पड़ा है, उधर से एक मुनिराज निकले, वे सोचते हैं अहो ! इस मूढ़ा ने अपनी कंचन जैसी मनुष्य पर्याय को व्यर्थ ही व्यसनों में लगाकर नष्ट कर दिया अब क्या पता कब मनुष्य पर्याय मिलेगी ? और कुछ आत्महित करने का समय आवेगा ? एक श्वान आता है, वह उस कलेवर को देखकर सोचता है, यह सब भीड़ हट जावे तो मेरा भोजन हो जावे मैं इस कलेवर से बहुत दिन तक अपना पेट भर सकता हूँ । बाद में कुछ व्यसनी लोग सोचते हैं कि यदि यह सुंदर स्त्री मरती नहीं तो अभी हम कितने दिन तक सुख का उपभोग और करते । कुछ विवेकशील सोचते हैं कि यह मर गई तो अच्छा हुआ कुछ मोही लोग दुर्व्यसनों से बचेंगे, कुछ व्यक्ति मात्र संसार की अस्थिरता का ही विचार कर रहे हैं ।
कुछ आधुनिक लोग उपर्युक्त उदाहरण को लेकर यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि बाह्य निमित्त अकिञ्चित्कर है । देखो ! एक कलेवर में भिन्न-भिन्न लोगों के भिन्न-भिन्न ही भाव हो रहे हैं किन्तु जैनाचार्य इस बात को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हैं । उनका कहना है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त स्वभाव-धर्म पाये जाते हैं प्रत्येक वस्तु अनन्त शक्तियों को लिये हुए है। अतः उस एक मृतक कलेवर के निमित्त से जितने व्यक्तियों के जितने प्रकार के भाव होते हैं उस कलेवर में भी उतने ही स्वभावभेद स्वीकार करना चाहिये । वस्तु में स्वभावभेद माने बिना किसी के भावों में या ज्ञान में भेद हो नहीं सकता है और प्रत्येक पदार्थ का भेद स्वभावान्तर - भिन्न स्वभावों से व्यावृत्त – पृथक्पृथक् ही है जैसे कि घट का ज्ञान पट के ज्ञान से पृथक् ही है अन्यथा दोनों ज्ञान एकरूप हो जाने से घट, पट आदि पदार्थों की पृथक्-पृथक् व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी इसी स्वभावभेद को आगे आचार्य विद्यानन्द महोदय ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है ।
किसी प्रदेश में एक वृक्षादि किसी पदार्थ में दूर में स्थित पुरुष को दूर में अन्य ही देश सामग्री का सम्बन्ध है और आसन्न देश में स्थित पुरुष को अन्य ही आसन्न देश सामग्री का सम्बन्ध है । और
1 एव । वृक्षादी | ( दि० प्र० ) 2 हेतोः । अभ्युपगन्तव्य: । ( दि० प्र० ) 3 हेतोः । ( ब्या० प्र० ) 4 भेदो भवति तस्मात् । ( व्या० प्र० )
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