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इतरेतराभाव की सिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
[ १८१ विपत्तिर्वा, जलस्याभावेप्यनलस्यानुत्पत्ते:1 क्वचित्तद्भावे च तस्याऽविपत्तेः । क्वचिदन्धकारस्याभावे रूपज्ञानोत्पत्तेः स प्रागभावस्तस्य स्यादिति न मन्तव्यं, नियमग्रहणात् केषाञ्चिदन्धकारेपि रूपज्ञानोत्पत्तेः । तत एव नान्धकारं रूपज्ञानस्य प्रध्वंसः, तद्भावे नियमतस्तद्विपत्यप्रतीतेः । ततः सूक्तमन्यापोहलक्षणं स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरन्यापोह इति, तस्य 'कालत्रयापेक्षेऽत्यन्ताभावेप्यभावादतिव्याप्त्ययोगात् । न हि घटपटयोरितरेतराभावः कालत्रयापेक्षः, कदाचित्पटस्यापि 'घटत्वपरिणामसंभवात्, तथा परिणामकारणसाकल्ये
भावार्थ-घड़े बनने के पहले अन्तिमक्षण की पर्याय-मृत्पिड को प्रागभाव कहते हैं, उसी घड़े की कपाल पर्याय के पूर्वक्षण को प्रध्वंसाभाव कहते हैं एवं घट और पट में इतरेतराभाव है। जीव एवं पुद्गल में अत्यन्ताभाव है।
शंका-कहीं पर अंधकार का अभाव होने पर रूपज्ञान की उत्पत्ति होती है, इसलिये वह अंधकार का अभाव प्रागभाव है।
समाधान-ऐसा भी नहीं मानना चाहिये, क्योंकि नियम शब्द का ग्रहण किया है एवं अंधकार के अभाव में रूपज्ञानोत्पत्ति का नियम नहीं है, क्योंकि किसी के अंधकार में भी रूपज्ञान की उत्पत्ति देखी जाती है और उसी प्रकार से वह अंधकार रूपज्ञान का प्रध्वंस भी नहीं है, क्योंकि अंधकार के सद्भाव में भी नियम से उस रूपज्ञान का विनाश प्रतीति में नहीं आता है।
भावार्थ-कार्य प्रागभाव को समाप्त करके ही होता है जब तक प्रागभाव विद्यमान है तब तक कार्य हो नहीं सकता है अतः प्रागभाव कार्य का पूर्णतया विरोधी है, उसी प्रकार जब तक प्रध्वंसाभाव विद्यमान है, तब तक किसी वस्तु का नाश असम्भव ही है। जब प्रध्वंसाभाव का अभाव होता है, तभी कार्य का विनाश होता है, अन्यथा नहीं किन्तु इतरेतराभाव में यह बात नहीं है । यह केवल एक वस्तु–पुस्तक में अन्य-चौकी आदि का हो अभाव सिद्ध करता है।
इसीलिये यह अन्यापोह का लक्षण बिल्कुल ठीक कहा गया है कि "स्वभावान्तर से स्वभाव में व्यावृत्ति होना अन्यापोह है" और इस अन्यापोह लक्षण का तीन काल की अपेक्षा रखने वाले
1 यथा जलस्याऽभावेप्यग्नेरुत्पत्तिर्न । क्वचित क्षेत्रे वस्तुनि वा जलस्य सद्भावेप्यग्नेविनाशो न। तथा इतरेतराभावस्याभावे कार्यस्योत्पत्तिर्न । इतरेतराभावस्य सद्भावे कार्यस्य विपत्तिर्न । इति कोर्थः । इतरेतराभाव एव प्रागभावप्रध्वंसाभावी भवतः सौगताभिप्राय एवम् । इति न तयोभिन्नलक्षणत्वात् । (दि० प्र०) 2 तद्विपत्यप्रतीतत: इति पा० । (दि० प्र०) 3 ननु चैतल्लक्षणस्य प्राक् प्रध्वंसाभावयोरसत्त्वेप्यत्यन्ताभावे सद्भावादेतल्लक्षणस्यातिव्याप्ति: स्यादित्याह । (दि० प्र०) 4 सौ० आह इतरेतराभावः प्रागभावप्रध्वंसाभावी मास्तु। तर्हि अत्यन्ताभावे सोऽस्तु । स्या० आह अत्रापि तस्याभावः । (दि० प्र०) 5 स्वभावान्तरसंक्रमणमतिव्याप्तिस्तस्या असंभवात् । उक्त लक्षणस्यान्यत्रारोपणमतिव्याप्तिः। (दि० प्र०) 6 इतरेतराभावोऽपि कालत्रयापेक्षो भविष्यतीत्याह । (दि० प्र०)7 घटादित्वम् । (दि० प्र०) 8 पटत्वघटत्वप्रकारेण । (दि० प्र०)
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