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अष्टसहस्री
[ कारिका १० ठीक नहीं है क्योंकि छिद्ररहित भवन से निकलना एवं प्रविष्ट होना पुद्गल में विरुद्ध नहीं है क्योंकि वे शब्दपुद्गल सूक्ष्मस्वभाव वाले हैं। जैसे तेल, घी आदि चिकने पदार्थ निश्छिद्र घड़े से बाहर निकलकर घडे को चिकना कर देते हैं एवं उष्ण, शीत स्पर्श आदि निश्छिद्र घड़े में प्रविष्ट होकर उसकी अभ्यंतर की वस्तु गर्म या ठंडी कर देते हैं यह बात सर्वजन सुप्रसिद्ध है।
__ अतः यत्न से उत्पन्न हुये वर्णादि स्थूल ऋजुसूत्रनय से वर्तमानकाल में ही श्रावणस्वभाव वाले हैं। उसके पहले एवं पीछे के पुद्गलों में वह श्रावणस्वभाव नहीं है इसलिये उतने ही ध्वनिपरिणाम हैं। इससे विपरीत यदि उन शब्दों को सकलकालकला में व्यापी, नित्य मानों तब तो वर्तमानकाल के समान भूत और भविष्यत में भी उनके सुनने का स्वभाव रहना ही चाहिये क्योंकि आपने ताल्वादिप्रयत्न से उन वर्ण पदों की उत्पत्ति नहीं मानी है। ___अतः शब्दों के पहले प्रध्वंसाभाव के लोप करने पर शब्द कूटस्थ नित्य सिद्ध होते हैं। एवं सर्वथा नित्य में क्रम या युगपत् से अर्थक्रिया का अभाव होने से वे शब्द निःस्वरूप ही हो जाते हैं क्योंकि नित्यशब्द में परिणमन न होने से वे घट इन दो शब्दों का ज्ञान कैसे करायेंगे ? त आकार वस्तु का या उसकी अर्थक्रिया जलधारण आदि का ज्ञान भी कैसे होगा? अतः कथंचित् नित्यानित्य की व्यवस्था ही ठीक है।
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