________________
शब्द के अमूर्तत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद
[ १७५ [ शब्दवर्तमानकाल एव श्रूयते न च भूतभाविकाले इति निर्णयः ] अतो यत्नजनितवर्णाद्यात्मा श्रावणमध्यस्वभावः प्राक् पश्चादपि पुद्गलानां नास्तीति तावानेव ध्वनिपरिणामः सर्वैरभ्युपगन्तव्यः, तस्य सकलकालकलाव्यापित्वे मध्यवत्प्राक् पश्चाच्च श्रावणस्वभावत्वप्रसङ्गात् प्रयत्नजनितवर्णपदवाक्यात्मकत्वायोगात् । तत्प्राक्प्रध्वंसाभावप्रतिक्षेपे कौटस्थ्य क्रमयोगपद्याभ्यां स्वाकारज्ञानाद्यर्थक्रियां व्यावर्तयतीति निरुपाख्यमित्यभिप्रायः श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्याणां, प्राक्प्रध्वंसाभावप्रतिक्षेपस्य कौटस्थ्येन व्याप्त
[ शब्द वर्तमानकाल में ही सुने जाते हैं भूत भविष्यत् काल में नहीं इसका निर्णय करते हैं ]
इसीलिये यत्न-ताल्वादि से उत्पन्न हुये अकारादि वर्ण वर्तमानकाल में ही सुनने योग्य स्वभाववाले हैं, क्योंकि उसके पहले और पीछे के भी पुद्गलों में वह श्रावणस्वभाव नहीं है। इसीलिये उतने ही ध्वनि परिणाम हैं। ऐसा सभी को स्वीकार करना चाहिये।
यदि उन शब्दों को सकलकाल की कला में व्यापी-नित्य मानें तब तो मध्य-वर्तमान काल के समान पहले और पीछे भी उनमें सुनाई देने का स्वभाव हो जाना चाहिए और उन वर्ण, पद तथा वाक्यों का स्वरूप ताल्वादिप्रयत्न नहीं होना चाहिये ।।
एवं उन शब्दों के प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव का लोप करने पर कौटस्थ्य-नित्यपना सिद्ध होता है जो कि कम और युगपत् से स्वाकार-शब्दाकार को ज्ञानादिरूप अर्थनिया से व्यावृत्त ही करता है, अतः वह निरुपाख्य-नि:स्वरूप ही सिद्ध होता है, श्री स्वामी समंतभद्राचार्य का ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये।
प्रागभाव एवं प्रध्वंसाभाव का निन्हव कूटस्थ नित्य से व्याप्त है और वह कूटस्थ नित्य क्रम तथा युगपत् के अभाव से व्याप्त है, क्योंकि उस कूटस्थ में क्रम-युगपत् का विरोध है और वह क्रम युगपत् का अभाव भी स्वीकार ज्ञानादि अर्थक्रिया की व्यावृत्ति से व्याप्त है एवं स्वाकार ज्ञानादि अर्थक्रिया की व्यावृत्ति निरुपाख्य-निःस्वरूपपने के साथ व्याप्त है। और यह निःस्वभावता सर्वथा अनर्थक्रियाकारी होने से अर्थक्रियाकारी न होने से सम्पूर्ण वचनविकल्पों से निष्क्रांत-रहित है।
भावार्थ-शब्द का प्रागभाव एवं प्रध्वंसाभाव नहीं मानोगे, तब तो वे शब्द कूटस्थ, नित्य सिद्ध होंगे, उनमें किसी प्रकार का परिणमन नहीं हो सकेगा और उनमें परिणमन यदि नहीं होगा, तो उनका क्रम और युगपत् से होना नहीं घटेगा, पुनः क्रम-युगपत् के न होने से उनमें अपने आकार को
1 उत्पन्नः । (दि० प्र०) 2 शब्दः । (दि० प्र०) 3 अन्यथा तस्य दूषणमाह । (दि० प्र०) 4 शब्दस्य । (दि० प्र०) 5 यथा शब्दात्प्राक् पश्चादित्येतयोर्मध्ये । (दि० प्र०) 6 तस्य शब्दस्यप्रागभावप्रध्वंसाभावयोरनङ्गीकारे कौटस्थ्यं स्यात् । तच्च क्रमाक्रमाभ्यां स्वकीयाऽवयवज्ञानाद्यर्थक्रियां शब्दस्य निवारयति । (दि० प्र०) 7 कर्तृ । (दि० प्र०) 8 निरुपाख्यत्वं कुतः । (दि० प्र०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org