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अष्टसहस्री
[ कारिका १० स्थितैरपि श्रोत्रऽन्त रैः शब्दस्याश्रवणप्रसङ्ग इति चेन्न, एक घ्राणप्रवेशात्प्रतिपत्तन्तराणां योग्यदेशस्थानामपि गन्धस्याप्यघ्राणप्रसङ्गात् । गन्धपरमाणूनां सदृशपरिणामभाजां समन्ततः प्रसर्पणाददोष इति चेत्तहि शब्दपरमाणूनामपि समानपरिणामभृतां नानादिक्तया विसर्पणात्स' दोषो मा भूत् । शब्दस्यागमनादीनामदृष्टानामपि कल्पनाप्रसङ्ग इति चेद्गन्धपरमाणूनामपि । अथैषां प्रतिपत्तिविशेषान्यथानुपपत्त्या निश्चयनान्नागमनादीनामदृष्टपरिकल्पनेति' चेच्छब्दपुद्गलानामपि यथा यत्र यदा यावतां प्रतिपत्त णामुपलब्धिस्तथा' तत्र तदा तावतामुपलब्धियोग्यपरिणामविशेषोपगमात्"। तदेवं शब्दस्य पुद्गलस्वभावत्वे दर्शनविस्तारविक्षेपप्रतिघातकर्ण
नैयायिक-पौद्गलिक शब्द एक ही श्रोता के एक कान में प्रविष्ट हो जावेंगे तब तो उसी योग्य देश में स्थित अन्य श्रोताओं को कुछ भी शब्द सुनाई ही नहीं देगा।
जैन—ऐसा भी नहीं है, अन्यथा गंधपरमाणु भी एक ही नाक में प्रविष्ट हो जायेंगे और पुनः उसो योग्य देश में स्थित संघने वालों को कुछ भी गंध नहीं आ सकेगी।
नैयायिक-सदृश परिणामवाले गंधपरमाणु सब ओर फैले जाते हैं, अत: यह दोष नहीं आता है।
__ जैन-तब तो शब्दपरमाणु भी समान परिणाम वाले हैं और नाना दिशाओं में फैल जाते हैं। अतः एक श्रोता को ही सुनाई देवें यह दोष नहीं आता है।
नैयायिक--शब्द के आगमन आदि में अदृष्ट-भाग्य की भी कल्पना करनी पड़ेगी। जैन--पुनः गंधपरमाणु के आगमन में भी भाग्य की कल्पना कीजिये।
नैयायिक--प्रतिपत्ति-ज्ञान विशेष की अन्यथानुपपत्ति होने से इन गंधपरमाणुओं का निश्चय हो जाता है अतः उनके आगमन आदि में अदृष्ट की कल्पना उचित नहीं है।
जैन--शब्दपरमाणओं की भी जिस प्रकार से जहाँ जब जितने श्रोताओं को उपलब्धि होती है। उसी प्रकार से वहीं पर तभी उतने ही उपलब्धियोग्य परिणाम विशेष स्वीकार किये गये हैं। अर्थात् श्रोताओं को जिन-जिन श्रुतज्ञानावरणरूप शब्दावरण का क्षयोपशम होता है, उसी प्रकार से उपलब्धियोग्य परिणाम विशेष के होने से उन-उन ही अक्षरों का सुनना होता है।
1 पुरुषैः । (ब्या० प्र०) 2 अन्यपुरुषाणाम् । (दि० प्र०) 3 प्रसारणात् । (व्या० प्र०) 4 परिकल्पना इति पा० । (ब्या० प्र०), वक्ष्यमाणभाष्यस्थादिशब्दं विवण्वंति परिकल्पनेति । (दि० प्र०) 5 अदष्टानां परिकल्पना प्रसंग इति संबन्धः । (दि० प्र०) 6 गन्धपरमाणनां स्कन्धपरिणतानाम् । (दि० प्र०) 7 स्पर्शनप्रत्यक्षेण कल्पन्ते गन्धपुद्गला इत्यर्थः । (दि० प्र०) 8 स्या० पूर्वस्माद्धे तोरदृष्टपरिकल्पना न । (दि० प्र०) 9 पुरुषाणां शब्दस्य प्राप्तिः । (दि० प्र०) 10 पुद्गलेषु । (दि० प्र०) 11 का । (दि० प्र०)
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