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[ कारिका १०
विर्भावान्तरमिष्यते तर्हि तस्याप्यन्यत्तस्याप्यन्यदाविर्भावनमित्यनवस्यानान्न कदाचिद् घटादे - राविर्भावः स्यात् । अथाविर्भावस्योपलम्भरूपस्य तद्रूपाविर्भावान्तरानपेक्षत्वात् प्रकाशस्य प्रकाशान्तरानपेक्षत्ववन्नानवस्थेति चेत् तर्हि तस्य कारणादात्मलाभोभ्युपगन्तव्यः, ततः कार्यमाविर्भाव इति । तद्वद्घटादिकमपि, अपेक्षित परव्यापारत्वाविशेषादात्मलाभे । न ह्यलब्धात्मलाभस्योपलम्भः शक्यः कर्तुं सर्वथातिप्रसङ्गात् । तदेवं प्रधान परिणामतापीष्टं घटादिकं कार्यद्रव्यमापाद्यते । तस्य च प्रागभावापह्नवेऽनादित्वप्रसङ्गात्कारणव्यापारानर्थक्यं स्यादिति सूक्तं दूषणम् । 'प्राक्तिरोभावस्योपगमे वा स एव प्रागभावः सिद्धः, तस्य ' तिरोभाव इति नामान्तरकरणे 'दोषाभावादुत्पादस्याविर्भाव इति नामान्तरकरणवत् । ततो न
अष्टसहस्री
मीमांसक को सांख्यमत का अनुसरण करना युक्त नहीं है, क्योंकि शब्द में सर्वथा प्रागभाव को स्वीकार न करने पर उस शब्द को अनादिपने का प्रसंग आता है, तथा पुरुषव्यापार भी अनर्थक ही सिद्ध होता है इस बात का समर्थन कर दिया ।
भावार्थ - सांख्य कहता है कि जब हम कार्यद्रव्य ही नहीं मानते हैं तब वे कार्यद्रव्य अनादि हो जावेंगे यह आरोप हमारे ऊपर कैसे आ सकेगा क्योंकि “मूलाभावे कुतो शाखा : " जब जड़ ही नहीं है तब उसमें शाखायें कहाँ से आवेंगी ? "डुकृञ् करणे" कृ धातु से कार्य शब्द निष्पन्न हुआ है अर्थात् 'यत्कारणैः क्रियते तत्कार्यं' जो कारणों के द्वारा किया जावे - बनाया जावे वही तो कार्य है और हम तो कारणसामग्री से पदार्थ का प्रकट होना ही मानते हैं न कि उत्पन्न होना ।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि जो आप सांख्य कारणों में कार्य का हमेशा विद्यमानरूप अस्तित्व मानकर उसकी प्रकटता मानते हो वह सर्वथा असम्भव है क्योंकि जब हमें कारणों में कार्य, बीज में वृक्ष, मिट्टी में घड़ा विद्यमानरूप कभी दीखे और कभी तिरोहित हो जावे फिर दिख जावे तब तो उसकी प्रकटता मानना ठीक भी है जैसे सूर्य का बादलों से तिरोहित होना एवं बादल हटते ही प्रकट होना इत्यादि दृष्टिगत होते रहते हैं तथैव आपके यहाँ तो दिखता नहीं है। दूसरी बात यह है कि कार्य का लक्षण अनुमान आदि से भी आपके यहाँ सिद्ध है अर्थात् जो परव्यापार की अपेक्षा रखता है वह कार्य है जैसे घट, पट आदि पदार्थ अपने स्वरूपलाभ में पर- कुंभार, चाक, दण्ड एवं जुलाहा आदि की अपेक्षा रखते ही हैं अतः ये कार्य ही हैं । इसलिये आपको भी कार्य तो स्वीकार करना ही पड़ेगा और उसका प्रागभाव नहीं मानोगे तो वे कार्य अनादिकाल से विद्यमानरूप ही मानने पड़ेंगे । एवं आपने जो कहा है कि मिट्टी में घट तिरोहित है वही तो प्रागभाव है आप तो वस्तु जो है वह मान भी
1 सांख्यैः । (दि० प्र०) 2 उपलम्भरूपाविर्भावस्य । ( दि० प्र० ) 3 उपलम्भादिलक्षणप्रादुर्भावादेर्वस्तुनः । (दि० प्र०) 4 का = अभ्युपगमे । ( दि० प्र० ) 5 कार्यस्य । ( ब्या० प्र० ) 6 प्रागभावस्य । ( दि० प्र० ) 7 घटादेः कार्यत्त्वाभावलक्षण | ( दि० प्र०)
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