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अष्टसहस्री
[ कारिका १० योपलब्ध्यभावात् । प्रत्यासन्नेतरदेशप्रतिपत्तृजनानां स्पष्टेतरादिभिन्नस्वभावतयोपलभ्यमानेनेकपादपेन व्यभिचार इति चेन्न, तस्य 'भिन्नदेशतयानुपलब्धेः। नयनावरणविशेषवशात्सकृद्भिन्नदेशस्वभावतयोपलभ्यमानेन' चन्द्रद्वयेन व्यभिचार इति चेन्न, भ्रान्तोपलम्भेनाभ्रान्तोपलम्भस्य व्यभिचारायोगादन्यथा' सर्वहेतूनामव्यभिचारासंभवात् । न च शब्दस्यापि सकृद्धिन्नदेशस्वभावतयोपलम्भो भ्रान्तः, सर्वदा बाधकाभावात् । युगपत्प्रतिनियतदेश
पर शब्दाद्वैतवादी को अवकाश मिल जाने से वह भी वर्गों को एकरूप सिद्ध करते हुये अनेकों उदाहरण दिखाता है।
शंका-आपकी इस मान्यता में सूर्य के साथ अनेकांत दोष आता है। अर्थात् सूर्य एक होते हुये भी अनेक देशवर्ती पुरुषों को अनेकरूप दिख रहा है।
समाधान नहीं, यद्यपि वह सूर्य एक साथ अनेक पुरुषों की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न देशों में उपलब्ध होता है फिर भी भिन्न-भिन्न स्वभाव से उसकी उपलब्धि नहीं होती है।
शंका-प्रत्यासन्न-निकट एवं दूरदेशवर्ती पुरुष एक वृक्ष को स्पष्ट और अस्पष्ट आदि भिन्न-भिन्न स्वभावरूप देखते हैं, अतः उस अनेकस्वभाव वाले वृक्ष से व्यभिचार आता है । अर्थात् वृक्ष एक है और देखने वाले अनेक पुरुष हैं। निकटवर्ती पुरुष उस वृक्ष को स्पष्ट एवं दूरवर्ती उसी को अस्पष्ट रूप से देख रहे हैं, अतः एक वृक्ष में स्वभाव से भी अनेक भेद हो गये।
समाधान नहीं क्योंकि वह वृक्ष भिन्न-भिन्न देश रूप से नहीं देखा जाता है।
शंका-नेत्रों में आवरण विशेष के निमित्त से एक साथ ही भिन्नदेश और भिन्नस्वभाव से उपलभ्यमान दो चंद्रों से व्यभिचार आता है । अर्थात् नेत्र में रोगादि विकार के निमित्त से किसी को एक चन्द्र भी दो दिखलाई देते हैं, अतः उस चन्द्रद्वय से व्यभिचार आता है।
समाधान नहीं। अभ्रांत उपलब्धिरूप वास्तविक वस्तु में भ्रांतोपलब्धिरूप भ्रांत कल्पना से व्यभिचार देना ठीक नहीं है, अन्यथा सभी हेतु व्यभिचारी बन जावेंगे, किन्तु ऐसा तो है नहीं, अत: शब्दों की भी सकृत्-एक साथ भिन्न-भिन्न देश और भिन्न-भिन्न स्वभाव रूप से भो उपलब्धि भ्रांत-असत्य नहीं है क्योंकि सर्वदा बाधक का अभाव पाया जाता है ।
यदि आप कहें कि युगपत् प्रतिनियत-भिन्न-भिन्न देशों में मन्द्र-उच्चध्वनि और तार-मंदध्वनि
1 बसः । (ब्या० प्र०) 2 भिन्नस्वभावतयोपलब्धावपि भिन्नदेशतयोपलब्ध्यऽभावात् । (दि० प्र०) 3 काचकामलादि । (ब्या० प्र०) 4 द्वित्व । (ब्या० प्र०) 5 भ्रान्तोपलं भेनाभ्रान्तोपलंभस्य व्यभिचारो घटते चेत्तदा लोके सर्वेषां हेतनां व्यभिचार एव । (दि० प्र०) 6 व्यभिचारायोगात् इति पा० । (दि० प्र०) 7 संदिग्धानकान्तिकत्वे मुद्धावित्वे यूगपदिन्नदेशस्वभावतयोपलब्धेरित्यस्य हेतोः । (दि० प्र०)
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