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[ कारिका १०
शब्दात्मानं' खण्डयत एवावरणत्वे स्वभावभेदप्रसङ्गः, आवृतानावृतस्वभावयोर भेदानुपपत्तेः । तयोरभेदे वा शब्दस्य श्रुतिरश्रुतिर्वेत्येकान्तः प्रसज्येत, पुरुषव्यापारात्पूर्वमश्रुतिस्तदनन्तरं श्रुतिरिति विभागानुपपत्तेः ।
अष्टसहस्री
सर्वथा उन दोनों में अभेद स्वीकार करने पर पुरुषव्यापार के पहले " नहीं सुनाई देना" और उसके अनन्तर "सुनाई देना" इस प्रकार विभाग नहीं बन सकेगा क्योंकि वे दोनों शब्द और श्रवण अभिन्न हैं ।
विशेषार्थ-मीमांसक शब्दों को सर्वथा नित्य एवं व्यापी तो मान ही रहा है । उस पर जैनाचार्यों ने प्रश्न किया है कि पुनः वे शब्द प्रतिक्षण सुनाई क्यों नहीं देते हैं ? तब उसने कहा कि शब्दों पर आवरण करने वाली कोई वायु विशेष है जिससे कि वे सुनाई नहीं देते हैं और जब उन शब्दों की अभिव्यञ्जक—प्रकट करने वाली वायु आती है तब सुनाई देने लगते हैं । इस अभिव्यञ्जक – प्रकटकरनेवाली वायु के विषय में प्रमेयरत्नमाला में कहा है कि "वक्तृमुखनिकटदेशवर्तिभिः स्पर्शनाध्यक्षेण व्यञ्जका वायवो गृह्यं ते । दूरदेशस्थितेन मुखसमीप स्थिततूलचलनादनुमीयते । श्रोतृश्रोत्रदेशे शब्दश्रवणादन्यथानुपपत्तेरर्थापत्त्यापि निश्चीयते । अर्थात् शब्द या वर्ण बोले जाते हैं तब उनकी अभिव्यञ्जक वायु को वक्ता के मुख के समीप बैठे हुये पुरुष स्पर्शन इंद्रिय के विषयभूत प्रत्यक्ष से ग्रहण करते हैं । वक्ता से दूर बैठे हुये पुरुष वक्ता के मुख के समीप स्थित वस्त्रादि के हिलने से उसका अनुमान कर लेते हैं । तथा श्रोता के कर्ण प्रदेश में शब्द का श्रवण अन्यथा हो नहीं सकता, इस अर्थापत्ति के द्वारा भी उनका निश्चय किया जाता है ।" तात्पर्य यह है कि आवारक वायु तो शब्दों को ढके रखती है अतः वे प्रतिक्षण सुनाई नहीं देते हैं और जब वक्ता के मुख से तालु आदि कारणों से शब्द निकलते हैं तब एक अभिव्यञ्जक वायु ही उन शब्दों को प्रकट करती है और उस वायु का अनुभव तो सभी को हो जाता है मुख के पास कपड़ा रखने से हिलने लगता है । जैसे सूर्य पर बादल आते हैं और तीव्र हवा के झोकों से फट जाते हैं उसी प्रकार से आवारकवायु से शब्द ढके रहते हैं, अभिव्यञ्जक वायु से प्रकट होते रहते हैं, किन्तु जैनाचार्य सूर्य के समान शब्द को प्रकटरूप मानने को तैयार नहीं हैं उनका कहना है कि शब्दवर्गणायें यद्यपि विश्व में ठसाठस भरी हैं फिर भी पुरुष के प्रयत्न से ही अक्षरात्मक होकर उत्पन्न होती हैं । अर्थात् शब्द पुद्गलद्रव्यरूप से तो नित्य हैं किन्तु पर्यायरूप से उत्पन्न-ध्वंसी हैं यह बात सिद्ध हो जाती है क्योंकि अपने पुरुषप्रयत्न के द्वारा शब्द अपने पूर्व के न सुनाई देने रूप स्वभाव को छोड़ते हैं उसको व्यय कहा जाता है एवं उत्तर के सुनाई देनेरूप स्वभाव को ग्रहण करते हैं उसी का नाम उत्पाद है तथा दोनों अवस्थाओं में पुद्गलत्वरूप से वे शब्द धौव्यरूप भी हैं यह स्याद्वाद प्रक्रिया है, किन्तु एकांतवादी मीमांसकों के यहाँ शब्द का तिरोधायकवायु से आवृत (ढके) होकर सुनाई न देना और पुनः अभिव्यञ्जकवायु से अनावृत ( प्रकट) होकर सुनाई देना इस प्रकार शब्द में दो स्वभाव मानना असम्भव है । यदि मानेंगे तो एकांत से शब्द नित्य नहीं रहकर अनित्य ही सिद्ध हो जायेंगे ।
1 श्रावण्यलक्षणम् । ( दि० प्र० ) 2 स्वरूप | ( दि० प्र०)
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