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शब्द के नित्यत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद
[ १५५ स्यात् ? तत्खण्डने' वा 'स्वभावहानिरव्यतिरेकात् । व्यतिरेके व्यपदेशानुपपत्तिः । इति' पूर्ववत्सर्वं, शब्दासामर्थ्ययोः परस्परमनुपकारकत्वाविशेषात् । शब्दस्य हि तदसामडुंनोपकारः क्रियमाणस्तस्मादभिन्नश्चेत् स एव कृतः स्यादिति तन्नित्यत्वहानिः । भिन्न
उसके परिणाम से सर्वथा भेद मानने पर उपकारकपना नहीं घटता है, वैसे ही यहाँ समझना चाहिये।
शब्द में उस असामर्थ्य से किया जाता हुआ उपकार उस शब्द से अभिन्न है या भिन्न ? यदि अभिन्न मानो तब तो वह शब्द ही किया गया ऐसा सिद्ध होने से उस शब्द में नित्यत्व की हानि का प्रसंग आ जाता है और यदि भिन्न मानों, तब तो सम्बन्ध की सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि उस भिन्न असामर्थ्य के द्वारा उस शब्द का कुछ उपकार नहीं हो सकता है। अथवा उस उपकार में भिन्न उपकार की कल्पना करो तब तो वे प्रश्न पुनः पुनः होने से अनवस्था आती है। जैसे कि प्रधान और उसके परिणामों में सर्वथा भेदपक्ष स्वीकार करने पर आती थी।
भावार्थ-मीमांसक के प्रति जैनाचार्यों ने जब यह दोषारोपण किया कि शब्द पहले सुनाई नहीं देनेरूप स्वभाव वाले हैं पश्चात् पुरुष के ताल्वादिप्रयत्न से सुनाई देने लगते हैं अतः अनित्य भी हैं और कृतक भी हैं । तब मीमांसक ने जैनों को समझाया कि भाई ! शब्द में पुरुषव्यापार के पहले और पश्चात् व वर्तमान में भी सुनाई देनेरूप स्वभाव अखण्डितरूप से विद्यमान है। फिर भी सहकारीकारण सामग्री के बिना अर्थात परुषप्रयत्न के बिना वे सनाई नहीं देते भी है कि वे शब्द अपने ज्ञान को उत्पन्न कराने में भी सहकारी कारणों की अपेक्षा रखते हैं। अतः जब सहकारीकारण मिलते हैं, पुरुष का ताल्वादिव्यापार होता है तभी वे शब्द सुनाई देते हैं और ज्ञान को भी उत्पन्न करा देते हैं।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि यदि आप ऐसा ही मानते हैं तो हम आपसे प्रश्न करते हैं कि ये शब्द स्वयं अपना ज्ञान करने में समर्थ हैं या नहीं ? यदि समर्थ कहो तब तो अपना ज्ञान करने में इन शब्दों को सहकारी कारणों की अपेक्षा नहीं रही। यदि कहो कि ये शब्द स्वयं का ज्ञान करने में स्वयं असमर्थ हैं । तब तो यह बताओ कि शब्द को प्रकट करने वाले जो सहकारी कारण इन्द्रिय
और मन हैं वे सहकारी कारण इस शब्द की अपने को न जाननेरूप असमर्थता का खण्डन-निवारण करते हैं या नहीं? यदि असमर्थता को नहीं हटाते हैं तब ये सहकारीकारण व्यर्थ ही हुये और यदि शब्द के अपना ज्ञान न करनेरूप असमर्थता को हटाकर समर्थता लाते हैं तब तो वे शब्द एक स्वभाव वाले कहाँ रहे ? उनमें सहकारी कारण के निमित्त से ही अपने को जानने की सामर्थ्य प्रकट हुई है पहले तो थी नहीं । अत: शब्द अनित्य सिद्ध हो गये क्योंकि शब्द का स्व को जाननेरूप स्वभाव शब्द से अभिन्न
बात यह
1 सहकारिकारणं शब्दाऽसामर्थ्य खण्डयतीति पक्षे शब्दस्य स्वभावहानिः स्यात् । कुतः शब्दादसामर्थ्यस्य भिन्नत्वात् । (दि० प्र०) 2 शब्दसामर्थ्यलक्षणम् । (दि० प्र०) 3 शब्दात् स्वभावस्य । (दि० प्र०) 4 एतत् । (दि० प्र०) 5 शब्दात् । (दि० प्र०) 6 शब्द एव कृतः न तूमकार इति शब्दस्य नित्यत्त्वं हीयते । (दि० प्र०)
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