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सहस्री
कारिका १०
विशेषप्रसङ्गात्' । कारणव्यापाराणां च कारणेभ्यो भेदैकान्तो वा स्यादभेदेकान्तो वा ? तभेदैकान्ते तद्वतोनुपयोगः, तावतेतिकर्तव्यतास्थानात् । व्यवहारिणामभिमतकार्यसंपादनमेव हीतिकर्तव्यता | तस्या : 1 स्थानं यदि व्यापारेभ्य एवैकान्ततो भिन्नेभ्यो भावाद्भवेत्तदा किं व्यापारवतान्यत्साध्यं', यतस्तस्योपयोगः क्वचिदुपपद्यते ? तद्वतो व्यापा
अथवा वे चक्रादिक घटादि के कारक हैं, पुनः तालु आदिक शब्द के कारक नहीं हैं किन्तु व्यञ्जक ही हैं । "क्योंकि व्यञ्जकव्यापार नियम से व्यङ्गय - व्यक्त होने योग्य को ही प्रकाशित करें, ऐसा कोई नियम नहीं है किन्तु कारण भी होते हैं ।" और ताल्वादि व्यापार नियम से शब्द को प्रकाशित करते हैं, इसीलिये ये शब्द ताल्वादि से व्यक्त होने योग्य नहीं हैं। जैसे कि चक्रादि घट को व्यक्त नहीं करते हैं, किन्तु कारणरूप होकर बनाते हैं ।
मीमांसक - "हमारे यहाँ वर्ण सर्वगत हैं, अत: यह दोष नहीं आता है ।
जैन - यह कथन ठीक नहीं है ।" क्योंकि वर्ण सर्वगत हैं यह बात प्रमाण के बल से सिद्ध नहीं होती है । अन्यथा “अन्यत्र - घटादिकों में भी सर्वगतपने का प्रसंग आ जावेगा ।" हम ऐसा कह सकते हैं कि नियम से घटादिकों की चक्रादि व्यापार से उपलब्धि होती है क्योंकि सत् रूप घटादि सर्वगत हैं ।
मीमांसक - "सांख्यों को यह भी इष्ट होने से कोई दोष नहीं है ।
जैन - ऐसा नहीं कह सकते हैं क्योंकि कारणव्यापार में भी प्रश्न की निवृत्ति नहीं हो सकेगी अर्थात् केवल कारण-कार्य में प्रश्न होंगे ऐसी बात नहीं है किन्तु कारणव्यापार में भी प्रश्न उठाये जा
सकेंगे ।"
चक्रादि कारण भी नियम से अपने व्यापाररूप भ्रमण आदि के सन्निधापक - प्रकाशक, अभिव्यञ्जक ही होवे, क्योंकि वे सर्वगत ही हैं। इस प्रकार के प्रश्न को भी रोका नहीं जा सकेगा। “इसी कथन से ही अवस्था - आपकी व्यवस्था का खण्डन कर दिया गया है ऐसा समझना चाहिये ।" अर्थात् आपके तत्त्व की व्यवस्था न बनने से अनवस्था आ जाती है, क्योंकि भ्रमण आदिरूप अपने व्यापार को उत्पन्न करने में कारणों के भिन्न-भिन्न व्यापार कल्पित करना चाहिये, उसी प्रकार से उसके उत्पादन में भी भिन्न-भिन्न व्यापारों की कल्पना करना चाहिये, इत्यादि प्रकार से उत्पादन पक्ष में अनवस्था का प्रसंग आता है, किन्तु अपने व्यापार को अभिव्यक्ति के पक्ष में अनवस्था नहीं आती
1 इति । ( दि० प्र० ) 2 ता । ( दि० प्र० ) 3 कथञ्चिद्भेदाश्रयणे स्याद्वादानुसरणप्रसंगात् । ( दि० प्र०) 4 परिसमाप्ति: । ( दि० प्र० ) 5 यत्साध्यं तद्वयापारेणैव साधितम् । अन्यत्साध्यं किं यद्वयापारवता साध्यते । तस्य व्यापारवतः यतः कुतः कस्मिंश्चित्कार्ये सार्थकत्वमुपपद्यतेऽपितु न कुतोऽपि । (दि० प्र० ) 6 कार्ये । ( दि० प्र० ) 7 व्यापारवतः सकाशात्तद्वयापाराभिन्ना इत्येकान्ताभ्युपगमे यथा मीमांसकानां शब्दादभिन्ना शब्दाभिव्यक्तिस्तात्वादिभिः क्रियते इति पक्षे यदूषणं तदत्राप्यायाति = कारणात् । ( दि० प्र० ) 8 कारणात् । ( ब्या० प्र० ) 9 यथाभिव्यक्तेः शब्दादभिन्नायाः शब्दवत्साअसत्त्वं तथा व्यापारवतः सकाशादभिन्नानां दूषणप्रसंग: । ( ब्या० प्र० )
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