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१४६ ] अष्टसहस्री
[ कारिका १० ततस्ते यद्यभिन्नास्तदा तावद्धा प्रधानं भिद्येत, ते वा प्रधानकरूपतां' प्रतिपद्येरन् । इति प्रधानस्योपकाराणां चावस्थानासंभवादनवस्था। तस्या भोग्याभावे पुंसो भोक्तृत्वाभावादभावः स्यात्', तस्य तल्लक्षणत्वात् । ततः प्रकृतिपुरुषतत्त्वयोरवस्थानाभावादन
परिणाम घटादि सर्वथा भिन्न हैं तब तो ये उस प्रधान के परिणाम हैं, ऐसा व्यपदेश भी नहीं हो सकेगा। इस प्रकार सर्वथाभिन्न पक्ष में संबंध की सिद्धि भी नहीं होगी, क्योंकि उनका कोई उपकार सम्बन्ध नहीं हैं।"
तात्पर्य यह है कि नित्य प्रधान परिणामों का उपकारक नहीं माना जा सकता है क्योंकि उस प्रधान में क्रम अथवा युगपत् से उपकारकपने का अभाव है एवं परिणामों से भी उस प्रधान का उपकार संभव नहीं है, क्योंकि उस प्रधान के वे परिणाम कार्यरूप हैं, ऐसा मानने से तो प्रधान को अनित्यपने का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा । "उन परिणामों के द्वारा उस प्रधान का उपकार मानने पर भी उपर्युक्त सभी विकल्पजाल समानरूप से हो जावेंगे एवं अनवस्था भी आ जावेगी।"
तात्पर्य यह है कि जितने भी परिणाम हैं, वे सर्व प्रधान के उपकार हैं, क्योंकि वे प्रधान के द्वारा ही किये गये हैं, और यदि वे उससे भिन्न हैं, तब तो ये, उसके हैं, ऐसा व्यपदेश भी नहीं हो सकेगा । पुन: सम्बन्ध की सिद्धि न होने से वे अनुपकारी ही रहेंगे। यदि उपकारवान् प्रधान का उन परिणामों से उपकार मानोगे तो पुनः उन परिणामकृत उपकारों के द्वारा पुनः उपकारांतर की कल्पना करने पर यानी परस्पर में उपकार मानने पर भी वे ही प्रश्न होते चले जावेंगे। इस प्रकार से अनवस्था दोष आ ही जावेगा।
यदि वे परिणाम उस प्रधान से अभिन्न हैं, तब तो जितने प्रकार के परिणाम हैं, उतने ही भेदरूप प्रधान हो जावेगा। अथवा वे परिणाम प्रधानस्वरूप एकरूप को प्राप्त हो जावेंगे। इसीलिये प्रधान
और उसके उपकारों का अवस्थान न होने से अनवस्था दोष आ ही जावेगा। तथा च उस अनवस्था से भोग्यरूप प्रकृति का अभाव हो जाने से पुरुष में भोक्तृत्व का अभाव हो जावेगा। इस प्रकार पुरुष का ही अभाव हो जावेगा क्योंकि आप सांख्यों ने तो पुरुष का लक्षण भोक्तृत्व माना है और लक्षण के अभाव में लक्ष्य टिक नहीं सकता है। अतएव प्रकृति और पुरुषरूप तत्त्व की व्यवस्था न होने से अनवस्था दोष ही आवेगा। इसीलिये कपिलमत का अनुसरण करके भी अशेषरूप से प्रधानात्मक घटादिकों में भी शब्द के समान अभिव्यङ्गयत्व-अभिव्यक्त होने योग्य की कल्पना करना युक्त नहीं है, क्योंकि सर्वदा प्रागभाव का अपन्हव करने पर कार्यद्रव्य के समान उस अभिव्यक्ति को भी अनादिपने का प्रसंग आ जावेगा, अर्थात् सभी ही कार्यों की सदा ही अभिव्यक्ति (प्रकटता) बनी ही रहेगी, जैसे कि प्रागभाव का लोप करने पर पृथ्वी आदि कार्यद्रव्य को अनादित्व का दोष दिया है, वही अभिव्यक्ति पक्ष में भी आ जावेगा।
विशेषार्थ-सांख्य ने प्रधान के दो भेद माने हैं एक व्यक्त, दूसरा अव्यक्त । व्यक्तप्रधान कार्य
1 सह । (ब्या० प्र०) प्रधानस्योपकाराणाञ्चानवस्थायां सत्यां प्रकृतिर्महदादेर्भाग्यस्याभावे सति पुरुषस्य भोक्तत्त्वाभावः स्यात् । कुतः पुंसः भोक्तृत्त्वलक्षणत्त्वात् । (दि० प्र०) 2 कुतः । (ब्या० प्र०) 3 हेतुभितं विशेषणम् । (ब्या० प्र०)
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