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शब्द के नित्यत्व का खंडन ]
प्रथम परिच्छेद
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वस्था । इति न कपिलमतानुसरणेनापि प्रधानात्मनामशेषतो घटादीनामपि शब्दवदभिव्यङ्ग्यत्वं युक्तं कल्पयितुं, सर्वदा प्रागभावापह्नवे 'तदभिव्यक्तेरप्यनादित्वप्रसङ्गात्कार्य
द्रव्यवत् ।
रूप, अनित्य, अव्यापी, क्रियावान्, अवयव सहित, अनेक, त्रिगुण – सत्त्व, रजतम गुणोंकर सहित इत्यादि है । इनसे विपरीत नित्य, अकार्यरूप, व्यापी, निष्क्रिय इत्यादिरूप अव्यक्तप्रधान है । जैसे कि हम जैनों के यहाँ पुद्गल के दो भेद हैं अणु एवं स्कन्ध । प्रायः अणु के सदृश शुद्ध इनका अव्यक्त प्रधान है अंतर इतना है कि हम अणु को भी क्रियाशील, एक, प्रदेशी, सावयव - षट्कोण मानते हैं और वे व्यापी, सर्वथा नित्य, निष्क्रिय मानते हैं तथा स्कन्ध तो विकार - विभाव पर्यायरूप है ही है । हमारे यहाँ स्कन्ध में भी महास्कन्ध आदि भेद प्रभेद पाये जाते हैं । सांख्य व्यक्तप्रधान से ही बुद्धि, अहंकार, तन्मात्रा आदिरूप से सृष्टि की उत्पत्ति मानते हैं उनके यहाँ प्रकृति कर्त्री है पुरुष कुछ भी कर्ता नहीं है बस पुरुष उस प्रकृति के द्वारा किये गये कार्यों का भोक्ता अवश्य है ।
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सांख्य घटादि कार्यों को प्रधान के परिणाम (विकार) मानता है। इस पर आचार्य प्रश्न करते हैं कि वे घटादि प्रधान से भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि भिन्न कहा जावे तो वे घटादि इस प्रधान के हैं ऐसा कैसे कहेंगे क्योंकि सांख्यों ने कोई समवायसम्बन्ध तो माना नहीं है । एवं प्रधान तो नित्य निरवयव है उसके कार्य घटादि होने वह अनित्य अवयवसहित इत्यादि दोषों से भी दूषित हो जावेगा । यदि घटादि उस प्रधान का कुछ उपकार करें या प्रधान उन घटादिकों का कुछ उपकार करे तब तो उपकार - उपकार्य सम्बन्ध होने से भी सर्वथा नित्यपक्ष बाधित होता है । कार्यकारण सम्बन्ध तो आपके यहाँ शक्य नहीं है आप सांख्य सत्कार्यवादी हैं जब कारण में कार्य विद्यमान ही रहता है तब यह इस कारण का कार्य है यह अंकुर इस बीज से हुआ है इत्यादि कथन ही व्यर्थ है । तथा यदि आप कहें कि प्रधान से घटादि परिणामरूप कार्य सर्वथा अभिन्न हैं तब तो विश्व में जितने भी कार्य घट, पट, मनुष्य, तिर्यंच आदि हैं वे सब प्रधानात्मक ही हैं, अतः जितने भी कार्य हैं उतने ही प्रधान के भी भेद हो जायेंगे किन्तु आपने प्रधान को एक ही माना है या तो वे सब कार्य अनन्तरूप न होकर एक प्रधानरूप होकर ही रह जायेंगे इत्यादि रूप से दूषण ही आते जावेंगे और सबसे बड़ा अनर्थं तो यह होगा कि इस प्रकार से आपके यहाँ प्रधान और उसके कार्यों की व्यवस्था न बनने से उसका भोक्ता पुरुष भी सिद्ध नहीं हो सकेगा क्योंकि जब भोगने योग्य प्रकृति ही नहीं रहेगी तब उसका भोक्ता पुरुष भी अपने अस्तित्व से समाप्त हो जावेगा क्योंकि पुरुष का लक्षण भोक्तृत्व है । लक्षण के अभाव में लक्ष्य वस्तु टिक नहीं सकती है । इसलिये आप सांख्य भी चाक दण्ड आदि से घटादि कार्यों की उत्पत्ति ही मान लो अभिव्यक्तिपक्ष में तो दूषण ही दूषण आ रहे हैं और उत्पत्तिपक्ष में 'पुनः प्रागभाव भी सिद्ध ही हो जावेगा। यदि आप प्रागभाव को न मानेंगे तो सभी कार्य अनादिकल से विद्यमान ही रहेंगे सभी मिट्टी में घट का अस्तित्व बना ही रहेगा ।
1 मीमांसकानाम् । ( व्या० प्र० ) 2 रूपाणां बस: । ( ब्या० प्र० ) 3 मीमांसकमतानुसारेण यथा शब्दस्याभिव्यङ्ग्यत्वं युक्तं न किन्तुत्पाद्यत्वम् । ( दि० प्र०) 4 अभिव्यक्तो वाऽन्यथा । उत्पत्त्युत्तरकालमिव प्रागपि । ( ब्या० प्र० ) 5 घटादि । ( दि० प्र० )
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