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शब्द के नित्यत्व का खंडन ]
प्रथम परिच्छेद
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ज्ञानोत्पत्तियोग्यता शब्दस्याभिव्यक्तिरिति चेत्तहि योग्यतायां समानश्चर्चः । योग्यतापि हि यदि शब्दधर्मत्वाच्छब्दादभिन्ना तदा कथं तद्वत्सती' पुरुषप्रयत्नेन क्रियेत ? अथ शब्दाद्भिन्ना, श्रोत्रस्वभावत्वात्तस्या' इति मतिस्तथापि न सा' प्रागसती श्रोत्रस्य नभोदेशलक्षणस्य सर्वदा सत्त्वात् 'तत्स्वभावभूताया योग्यतायाः प्रागपि सत्त्वात् । एतेनात्मधर्मो' योग्यता शब्दाद्भिन्नेति निरस्तं, नित्यत्वादात्मनः प्रागसत्त्वासम्भवात् । अथ भिन्नाभिन्ना
क्योंकि शब्द जब तक अपने पूर्वकालीन अश्रावणत्वस्वभाव का परित्याग नहीं कर देगा, तब तक उसमें श्रावणस्वभावता नहीं आ सकती है और यह परिवर्तन कथंचित् अनित्यता के बिना असंभव ही है। यदि इस दोष का परिहार करने के लिये यह कहें कि श्रवणज्ञानोत्पत्ति के पहले भी शब्द में श्रावणस्वभावता विद्यमान है, तब तो श्रवणज्ञानोत्पत्तिरूप अभिव्यक्ति को मानने की क्या आवश्यकता है ?
मीमांसक-श्रवणज्ञानोत्पत्तिरूप क्रिया शब्द का धर्म नहीं है, क्योंकि उस श्रवणज्ञानोत्पत्ति में "शब्दं श्रृणोमि" इत्यादिरूप से कर्मस्थ क्रिया का अभाव है।
जैन-तब वह क्या है ?
मीमांसक-वह श्रवणज्ञानोत्पत्तिरूप क्रिया पुरुष का स्वभाव है क्योंकि वह कर्तृस्थ क्रियारूप है । अर्थात् श्रोताजनों के आश्रित है।
जैन-यह कथन भी अयुक्त ही है क्योंकि कर्ता-आत्मा के समान इस कर्तृ स्थ क्रिया में प्राक्पहले सत् की आपत्ति समान ही है। पुनः तालु आदि व्यापार भी अनर्थक हो जावेंगे अर्थात् जैसे आत्मा पहले से ही सत्रूप है, वैसे ही वह कर्ता में स्थित क्रिया भी पहले सत्रूप ही माननी पड़ेगी, पुनः तालु, ओष्ठ से बोलनेरूप पुरुष व्यापार व्यर्थ ही रहेगा।
मीमांसक-श्रवणज्ञानोत्पत्ति की जो योग्यता है वही शब्द की अभिव्यक्ति है।
जैन-"तब तो योग्यता में भी समान ही प्रश्न होंगे।" तथैव वह योग्यता भी यदि शब्द का धर्म होने से शब्द से अभिन्न है, तब तो वह उसी प्रकार शब्द के समान ही नित्य होने से वह भी विद्यमान - सत्रूप ही है पुनः पुरुष प्रयत्न के द्वारा कैसे की जाती है ?
यदि "वह शब्द से भिन्न है, क्योंकि वह श्रोत्र का स्वभाव है" ऐसा मानों फिर भी वह पहले असत्रूप नहीं है क्योंकि उस आकाश देश लक्षण कर्णेन्द्रिय का सदा ही सत्त्व पाया जाता है और उस शब्द की स्वभावभूत योग्यता का अस्तित्व भी पहले से ही विद्यमान है।
जो कहते हैं कि योग्यता आत्मा का धर्म है और वह शब्द से भिन्न है इसका खण्डन भी इसी कथन से कर दिया समझना चाहिये क्योंकि आत्मा नित्य है और उसका प्रागभाव भी असंभव है।
1 शब्दवत् । (दि० प्र०) 2 धर्मः । (ब्या० प्र०) 3 योग्यता । (दि० प्र०) 4 कारणस्य । (ब्या० प्र०) 5 शब्दः । (दि० प्र०) 6 शब्दाभेदाभेदप्रकारेण । श्रोत्रस्वभावात्मिकाया योग्यताया निषेधद्वारेण । पुरुषस्वभावम् । (दि० प्र०)
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