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प्रागभावसिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
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कल्पमात्राद्र'व्या दिव्यवहारवत्, प्रमाणादिप्रकृत्यादि रूप स्कन्धादिविकल्पमात्रात्तद्व्यवहारवच्च । ततो न प्रागभावः कश्चिदिह प्रतीयते प्रध्वंसाभावादिवत् ।।
[ अधुना जैनाचार्यः प्रागभावस्य निह्नवे हानि प्रदर्श्य नयप्रमाणाभ्यां तं साधयति ] इति प्रागभावादिनिह्नवं कृत्वा "पृथिव्यादिकार्यद्रव्यमभ्युपगच्छंश्चार्वाकोनेनो पालभ्यते, न पुनः सांख्योन्यो वा, तस्य कार्यद्रव्यानभ्युपगमात्, 14तिरोभावाविर्भाववत्परिणा
प्रकृत्यादि विकल्पमात्र से वैसा व्यवहार होता है अथवा बौद्ध के मत में रूप, स्कन्ध आदि के विकल्प से रूप, स्कन्ध आदि व्यवहार होता है। उसी प्रकार से प्रागभावादि के विकल्प से प्रागभावादि व्यवहार होता है। इसीलिये प्रध्वंसाभावादि के समान कोई प्रागभाव भी प्रतीति में नहीं आता है। [ अब जैनाचार्य प्रागभाव के लोप से हानि बताते हुये नय और प्रमाण के द्वारा
प्रागभाव को सिद्ध करते हैं ] जैन-इस प्रकार से प्रागभावादि का लोप करके पृथ्वी आदि कार्य द्रव्य को स्वीकार करते हुये आप चार्वाक भी इस उपर्युक्त कारिका के द्वारा उलाहना के ही पात्र हैं न कि केवल सांख्य या अन्य सत्ताद्वैतवादी ही उलाहना के पात्र हैं। अर्थात् जिस प्रकार से आप चार्वाक ने सांख्य एवं सत्ताद्वैतवादी को उलाहना दी है तद्वत् आप स्वयं भी उन दोषों से बच नहीं सके हैं, आप भी दोष सहित ही हैं, क्योंकि आपने कार्यद्रव्य को स्वीकार ही नहीं किया है।
एवं तिरोभाव आविर्भाव के समान परिणाम को स्वीकार करने पर भी भावस्वभाव प्रागभाव आदि की स्वीकृति का भी सद्भाव पाया जाता है। अर्थात् सांख्यों ने जैसे आविर्भाव तिरोभाव को स्वीकार करने से प्रागभाव आदि अभावों को भावस्वभाव ही मान लिया है। उसी प्रकार आप सत्ताद्वैतवादियों के यहाँ भी परिणाम स्वीकार किया गया है अतः आप भी प्रागभाव आदिकों को
1 चार्वाको वदति । यथा वैशेषिको लोकः द्रव्यगुणकर्मादि षद्रव्यविकल्पमात्राद् द्रव्यादिव्यवहार प्रवर्त्तयति । एवं पूनः प्रमाणप्रमेयसंशयादि षोडशपदार्थवादी नैयायिको लोकः। प्रकृतिमहदादिपञ्चविंशतिः पदार्थवादी सांख्यः । रूपस्कन्धादिवादी सौगतः । तत्तद्विकल्पात्तत्तद्वयवहारं प्रवर्तयति । यतो विकल्पमात्रात्प्रागभावादि व्यवहारप्रवृत्तिः । तत इह कार्यादौ कश्चित्प्रागभावो न प्रतीयते । यथा प्रध्वंसाभावादि:=आह स्याद्वादी। एवं चार्वाकः प्रागभावादि निह्नवं विधाय पृथिव्यादि कार्यद्रव्यं मन्यमानः आचार्य: स्वामिभिर्न उपलभ्यतेऽपितु दृष्यतेसांख्ययोगादिव निदूष्यते। कुतस्तस्य सांख्यादेः कार्यद्रव्यस्य नाङ्गीकारात् । (दि० प्र०) 2 (वैशेषिकमते)। 3 नैयायिकापेक्षया। 4 सांख्यापेक्षया । 5 बौद्धमतापेक्षया। 6 (क्रमेण नैयायिकसांख्यबौद्धाभिमतप्रमाणादि, प्रकृत्यादि, रूपस्कन्धादि निदर्शनं ज्ञेयम्)। 7 लोके । (दि० प्र०) 8 प्रध्वंसस्य निराकरिष्यमाणत्वात् । 9 इतो जैन आह इतीत्यादि। 10 घटादि । (दि० प्र०) 11 कार्यद्रव्यमनादि स्यादित्यादिकारिकया। 12 दृष्यते । (दि० प्र०) 13 अन्यः सत्ताद्वैतवादी। 14 यथा तिरोभावाविर्भावाभ्युपगमे सांख्यस्य भावस्वभावप्रागभावाद्यभ्युपगमस्तथापरिणामोपगमे सत्ताद्वैतवादिन इति वाक्यार्थ आत्मन आकाशः संभूत आकाशाद्वायुरित्त्यादि श्रुतिवलेनानिर्वाच्या विद्याद्वितयसचिवस्य प्रभवतो विवर्ता यस्येत्त्यादि वचनाद्वैतवादिना परिणामोभ्युपगम्यते । (दि० प्र०)
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