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१२६ ] अष्टसहस्री
[ कारिका १० स्वभावो 'भाववदेवेति न तदेकत्वानेकत्वैकान्तपक्षभावी दोषोवकाशं लभते । न च भावस्वभावे प्रागभावे प्राग्नासीत्कार्यमिति नास्तित्वप्रत्ययो विरुध्यते, तदभावस्य भावान्तररूपत्वात् तत्र च नास्तित्वप्रत्ययाविरोधात्, घटविविक्तभूभागे' घटनास्तित्वप्रत्ययवत् । तदेवं प्रसिद्धस्यैव प्रागभावस्यापलपनं निह्नवः ।
[ चार्वाकः प्रध्वंसाभावं न मन्यते तं निरस्य जैनाचार्याः प्रध्वंसाभावं समर्थयंति ] परस्य प्रध्वंसाभावः कथं प्रसिद्ध इति चेन्नयप्रमाणार्पणादिति ब्रूमः । तत्र ऋजुसूत्र
सर्वथा अभाव का लोप होते देख अब जैनाचार्य बोल उठे। वे कहते हैं कि हम अभाव को न तुच्छाभावरूप मानते हैं और न पदार्थ के विशेषणरूप ही मानते हैं। हम तो अभाव को भावांतर. भिन्नभावरूप ही मानते हैं जैसे "दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति" प्रकाश का अभाव अर्थात् अंधकार का सद्भाव हो गया है दोनों ही पुद्गल की पर्यायें हैं।
एवं चार्वाक ने नैयायिक पर जो दोषारोपण किया है वह चार्वाक भी दोषों से बच नहीं सकता। तथा जो चार प्रश्न करके दोष दिये गये हैं वे दोष भी हमारे यहाँ असम्भव हैं। हमने प्रथम एवं चतुर्थ विकल्परूप से प्रागभाव को माना है अर्थात् सादि सांत और अनादिसांतरूप प्रागभाव हम मानते हैं। सादि अनन्त और अनादि अनन्तरूप द्वितीय और तृतीय विकल्प हम नहीं मानते हैं क्योंकि सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से प्रागभाव सादि सांत है एवं उसके पूर्व-पूर्व की पर्यायें सभी प्रागभाव हैं इसमें सभी पर्यायों में घट उत्पन्न होने का प्रसंग नहीं है क्योंकि उन पूर्व-पूर्व पयायों का विनाश होने पर भी यदि अन्तिमपर्याय क्षण का विनाश नहीं हुआ है तो घट कार्य नहीं होगा।
यदि कोई दोषारोपण करे कि अनादि प्रागभाव अनन्त ही होवे सांत कैसे रहेगा ? जैसे सुमेरुपर्वत, जीवद्रव्य आदि पदार्थ अनादि होकर अनन्त ही हैं। सो यह कथन भी ठीक नहीं है किन्हीं भव्य जीवों का संसार अनादि होकर भी अन्त सहित है अनन्त नहीं है एवं बीज वृक्ष की परम्परा अनादि होकर भी बीज को जला देने से अब अन्त सहित हो जाती है। अतः स्याद्वाद सिद्धांत में प्रागभाव भाव स्वभाव है और एक-अनेकस्वभाव भी है उसका लोप करना अहितकर है। . [ चार्वाक प्रध्वंसाभाव को नहीं मानता है उसका खण्डन करके आचार्य प्रध्वंसाभाव का
समर्थन करते हैं ] चार्वाक -हमारे यहाँ प्रध्वंसाभाव की सिद्धि नहीं मानी है अतः आप उसका अस्तित्व कैसे सिद्ध कर सकेंगे?
जैन-ऐसा नहीं कहना क्योंकि नय और प्रमाण की अपेक्षा से ही प्रध्वंसाभाव भी सिद्ध ही है। सुनिये ! उसमें ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से उपादेय क्षण-कार्यरूप कपालमाला है वही उपादान1 सत्तावत् । (दि० प्र०) 2 हेत्वन्तरम् । (दि० प्र०) 3 रहितम् । (दि० प्र०) 4 नयप्रमाणार्पणयोर्मध्ये। (दि० प्र०)
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