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प्रध्वंसाभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ १२६ हि मृदादिकं तद्रव्यमन्वयीष्यते, न पुनः सन्तानान्तरं, तस्य स्वपर्यायमेवातीतमनागतं वा प्रत्यन्वयिनस्तद्रव्यत्वविरहात् । तदेवं प्रसिद्धः प्रध्वंसो वस्तुधर्मः । तस्य प्रच्यवोऽपह्नव एव चार्वाकस्य । तस्मिश्च कार्यद्रव्यं पृथिव्यादिकमनन्ततां व्रजेदिति समन्तभद्रस्वामिनामभिप्रायः । वृत्तिकारास्त्वकलङ्कदेवा एवमाचक्षते कपिलमतानुसारिणां प्रागभावानभ्युपगमे घटादेरनादित्वप्रसङ्गात् पुरुषव्यापारानर्थक्यं स्यात् । न च पुरुषव्यापारमन्तरेण घटादि 'भवदुपलभ्यते जातुचिदिति कार्यद्रव्यं तदापादनीयम् । तच्च प्रागभावस्य निह्नवेऽनादि स्यादिति सूक्तं दूषणम्, आपाद्यस्याप्युद्भाव्यवदूषणत्वोपपत्तेः ।
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क्षितघट का द्रव्य नहीं है। इसलिये प्रध्वंसाभाव वस्तु का धर्म है, यह बात सिद्ध हो जाती है। एवं चार्वाक उस प्रध्वंसाभाव का प्रच्यव--अपह्नव-लोप ही करता है अतएव उसके यहाँ प्रध्वंस का अपह्नव करने पर पृथ्वीआदि कार्यद्रव्य अनन्तपने को प्राप्त हो जाते हैं।
इस प्रकार से श्री स्वामी समंतभद्राचार्य के अभिप्रायानुसार कथन किया गया है।
भावार्थ-घट में प्रध्वंसाभाव-नष्ट का अभाव होने से कपालमाला नहीं हुई है उस प्रध्वंसाभाव का अभाव-नाश करके कपाल होंगे इस प्रध्वंसाभाव को भी चार्वाक मानने को तैयार नहीं है। तब आचार्य प्रमाण-नय की विवक्षा से इसे भी सिद्ध करते हैं कि ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से उपादानरूप घट का विनाश होकर उपादेयरूप कपाल उत्पन्न हुये हैं। यहाँ प्रागभाव को उपादानरूप घट एवं प्रध्वंस को उपादेयरूप टकडे समझना क्योंकि प्रागभावरूप घडे का उपमर्दन करके प्रति हैं। यदि कोई कहे कि प्रागभाव और प्रध्वंस दोनों ही अभावरूप हैं पुनः अभावों में ही उपादान, उपादेयभाव कैसे हुआ ? तब आचार्य कहते हैं कि हमारे यहाँ तुच्छाभावरूप अभाव नहीं है अतः कोई बाधा नहीं है । “व्यवहार-द्रव्याथिकनय से घट के उत्तरकाल में होने वाला घट के आकार से रहित मिट्टी द्रव्य ही घट का प्रध्वंस माना गया है" वह सादि और अनंत है।
इस पर कोई कहता है कि इस लक्षण से तो कभार के घर में या खेतों में बहुत सी मिट्टी पड़ी हुई है वह घट के आकार से रहित है उसमें भी घट के प्रध्वंसरूप कपाल हो जावें। आचार्य कहते हैं ऐसा नहीं कहना हमने "घट के उत्तर काल में होने वाला" ऐसा विशेषण दिया है अतः कार्य का विनाश होना ही प्रध्वंस है उसका लोप करने पर तो कभी भी कोई कार्य नष्ट होने से सभी कार्य अनंतकाल बने रहेंगे। अतः चार्वाक को प्रध्वंस भी वस्तु का धर्म ही मानना चाहिये ।
1 विवक्षितघटः । (ब्या० प्र०) 2 तस्य सन्तानांतरस्य कोर्थो विवक्षितात् अन्यघटस्यातीतं स्वपर्यायमेव प्रागभावः । अनागतं स्वपर्यायमेव प्रध्वंसः । कुतः प्रत्यन्वयिन: विवक्षितघटस्य सन्तानान्तरघटद्रव्यत्त्वशून्यत्वात् । (दि० प्र०) 3 घटाद्यात्मकमृद्रव्य । (ब्या० प्र०) 4 प्रध्वंसापद्भावे सति। (दि० प्र०) 5 अनादित्त्वं भवतु को दोषमुद्भावयति । (ब्या० प्र०) 6 मूलकारेण चार्वाक प्रतिवृत्तिकारेण सांख्यं प्रतिदूषणमुक्तमितिविरोध आह । (ब्या० प्र०) 7 जायमानं सत् । (दि० प्र०) 8 दूषणतया आरोपणीयम् । (दि० प्र०)
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