________________
प्रथम परिच्छेद
प्रागभावसिद्धि ]
[ १२३ पर्यायाः सर्वेप्यनादिसंततयो घटस्य प्रागभाव इति 'वचनेपि न प्रागनन्तरपर्यायनिवृत्ताविव तत्पूर्वपर्यायनिवृत्तावपि' घटस्योत्पत्तिप्रसङ्गो, येन 'तस्यानादित्वं पूर्वपर्यायनिवृत्तिसंततेरप्यनादित्वादापाद्यते, घटात्पूर्वक्षणानामशेषाणामपि 'तत्प्रागभावरूपाणामभावे घटोत्पत्त्यभ्युपगमात्, 'प्रागनन्तरक्षणानिवृत्तौ 1 तदन्यतमक्षणानिवृत्ताविव सकलतत्प्रागभावनिवृत्त्य
सुघटित होवे अर्थात् आपका यह कथन सुघटित नहीं है क्योंकि जो कार्य से रहित एवं पूर्वकाल से विशिष्ट मृदादिद्रव्य हैं उन्हीं में ही घटादिक का प्रागभाव स्वीकार किया गया है पुनः उस मृदादि द्रव्य का कार्य की उत्पत्ति के होने पर विनाश सिद्ध ही है । ___कार्य से रहित मृदादि द्रव्य के विनाश के बिना कार्य सहितरूप से घट की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि कार्य की उत्पत्ति ही उपादानात्मक प्रागभाव का क्षय है ऐसा आगे कहेंगे।
बनने के पूर्व में अन्तिम क्षणवर्ती मत्पिण्ड ही घट के लिये उपादानरूप है अत: वही प्रागभाव है और उस अन्तिम मृत्पिण्ड पर्याय का क्षय-विनाश ही घटरूप कार्य की उत्पत्ति है।
इसी प्रकार से प्रमाण की विवक्षा से प्रागभाव द्रव्यपर्यायात्मक है ऐसा कथन करने पर भी उभय पक्ष में उपक्षिप्त दोषों का प्रसङ्ग हम जैनियों के यहाँ शक्य नहीं है । अर्थात् "सकलादेशः प्रमाणाधीनः" इस कथन के अनुसार प्रमाण द्रव्य और पर्याय दोनों की अपेक्षा रखता है क्योंकि
। के समान ही पर्यायरूप सन्तति की अपेक्षा से भी अनादि स्वीकार किया गया है।
और वह प्रागभाव अनादि है अतः अनन्त है ऐसा भी आप एकान्त से नहीं कह सकते हैं । अर्थात् प्रागभाव को अनादि मानने पर अनन्तपना भी प्राप्त होता है जैसे कि आकाश अनादि होने से अनन्त है इसीलिये कार्य की उत्पत्ति नहीं होगी। यह दोषारोपण भी सिद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि भव्यजीवों का संसार अनादि होते हुये भी सांत-अन्त सहित है यह बात प्रसिद्ध ही है । अन्यथा यदि ऐसा नहीं मानो अर्थात् जो अनादि है वह अनन्त ही है ऐसा एकांत स्वीकार करो तब तो किसी भी जीव को मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकेगी क्योंकि जीवों का संसार तो अनादि ही है।
एवं जो सांत है वह सादि ही है ऐसा भी एकान्त नहीं ले सकते हैं क्योंकि किसी का संसार अन्त सहित होते हुये भी अनादिरूप से प्रसिद्ध है। इसलिये प्रागभाव अनादि एवं सांत है इस प्रकार से सिद्ध हो जाने पर सदा ही कार्य की अनुत्पत्ति अथवा घट से पूर्व-पूर्व में भी उस घट की आपत्ति दुर्निवार नहीं है । अर्थात् इन आपत्तियों का निवारण करना कठिन नहीं है। इसलिये नय, प्रमाण की अपेक्षा से प्रागभावभाव स्वभाव है, तुच्छाभावरूप नहीं है यह बात सिद्ध हो गई।
1 पूर्वचार्वाकोक्ततृतीयविकल्पाभ्युपगमेपीत्यर्थः । 2 अनन्तरपूर्वपर्यायात्पूर्वपर्यायास्तत्पूर्वपर्यायाः। 3 अनन्तरपर्यायनिवृत्ति बिना ततश्च । (दि० प्र०) 4 घटस्य। 5 अभावः । (दि० प्र०) 6 (प्रागनन्तरपर्यायेणापि सहितानामित्यर्थः)। 7 ता । (दि० प्र०) 8 सति । (दि० प्र०) 9 सद्भावे। (दि० प्र०) 10 पूर्वप्रागभावानां मध्ये । 11 तत्, घटादि।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org