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अष्टसहस्री
। कारिका
भावकान्ते' पदार्थानामभावा नामपन्हवात् ।
'सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥६॥ पदार्थाः, प्रकृत्यादीनि पञ्चविंशतितत्त्वानि ।। 7"मूलप्रकृतिरविकृति महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः10 सप्त । षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिन विकृतिः ।
पुरुषः"
कारिकार्थ-हे भगवन् ! यदि आप से भिन्न–अन्य मतावलम्बियों के यहाँ सभी पदार्थ सर्वथा भावैकान्त-नित्यरूप ही माने जावेंगे तब तो अभाव-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यन्ताभावरूप अभावों का नाश हो जाने से सभी पदार्थ सर्वात्मक, अनादि, अनन्त और अस्वरूप-स्वरूप रहित-शून्यरूप हो जावेंगे।
विशेषार्थ-अभाव के चार भेद हैं-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव । प्राक्-पहले नहीं होना अर्थात् कारण में कार्य का नहीं होना प्रागभाव है जैसे मिट्टी में घड़े का अभाव, बीज में वक्ष का अभाव एवं संसारी आत्मा में परमात्मा का अभाव देखा जाता है। इस प्रागभाव का अभाव-नाश करके ही कार्य उत्पन्न होता है कर्मसहित आत्मा में परमात्म अवस्था का प्रागभाव है अंतरग बहिरंग सामग्री भव्यत्व काललब्धि आदि एवं रत्नत्रय की पूर्णता आदि के होने से उस परमात्म अवस्था के प्रागभाव का अभाव होकर यह आत्मा ही परमात्मा बन जाती है, मृत्तिका को अंतरङ्ग बहिरङ्ग सामग्री, स्निग्धता, कुम्भकार, चाक आदि के मिलने से घट के प्रागभाव का अभाव होकर वह मिट्टी ही घटरूप परिणत हो जाती है । यदि इस प्रागभाव का लोप कर दिया जावे तो घट, पट, वृक्ष, परमात्मत्व आदि सभी कार्य अनादिकाल से स्वयं विद्यमान ही रहेंगे परन्तु ऐसा तो देखा नहीं जाता है। अतः प्रागभाव का मानना उपयुक्त ही है। तथैव प्रध्वंस-नाश का अभाव-प्रध्वंसाभाव है। जैसे घड़े में कपाल- टुकड़ों का अभाव है इसे प्रध्वंसाभाव कहते हैं । इस प्रध्वंसाभाव का अभाव-नाश करके ही घट फूटकर उसके कपाल-टुकड़े बनेंगे। यदि घट के प्रध्वंसाभाव का अभाव अर्थात् घट का प्रध्वंस होना नहीं मानोगे तो कभी भी घट कार्य का नाश न होने से जो सभी पदार्थ कार्यरूप हैं वे अनन्त काल तक वैसे ही बने रहेंगे पूनः किसी मनुष्य का प्रध्वंस न होने से वह शाश्वतिक हो 1 अस्तित्वमेवेति निश्चयैकान्ते । (दि० प्र०) 2 प्रकृत्यादि पञ्चविंशतेः । (दि० प्र०) 3 इतरेतर प्राकप्रध्वंसात्यन्ताभावसंज्ञकानाञ्चतुर्णामभावानाम् नाङ्गीकारात् किं दूषणमित्याह । हे जिनेन्द्र ! अन्योन्याभावानजीकारे तावकं सांख्यादिमतं व्यक्ताव्यक्तलक्षणयो: कार्यकारणयोरैक्ये सति सर्वात्मकं स्यात् । तथा प्रागभावानङ्गीकारे अनाद्यत्वं स्यात् । तथा प्रध्वंसाभावानङ्गीकारे कार्यस्यानन्तत्वं स्यात् । तथाऽत्त्यन्ताभावानङ्गीकारे वस्तुनोऽस्वरूपत्त्वं स्वात् । कोर्थः । चेतनस्याचेतनत्वमचेतनस्य चेतनत्वं प्रसंग इत्यायाति । (दि० प्र०) 4 प्रागभावः, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभावोत्यन्ताभावश्चेति चत्वारोऽभावाः। 5 सर्वेषां पदार्थानां सर्वात्मकत्वमनादित्वमनन्तत्वमस्वरूपत्वं (अस्वभावत्वं) चेति चत्वारो दोषाः क्रमेण प्रत्येकाभावापह्नवे। 6 तावकीनभिन्नमतावकम् । परमतमित्यर्थः । 7 मूलप्रकृतिः प्रधानम्। 8 अकार्यम् । १ महानहङ्कारश्च पञ्च तन्मात्राणि (गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः) चेति सप्त । 10 कारणकार्यरूपाः। 11 पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, पञ्च महाभूतानि मनश्चेति षोडशको विकारः कार्यरूप एव ।
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