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अष्टसहस्री
[ कारिका किमेकत्वं केन प्रतिभासकार्यादिना निर्णीतं 'स्यात्, पक्षस्य विपक्षस्य सपक्षस्य चाभावात् । साध्यधर्माधारतया हि प्रसिद्धो धर्मी पक्षः । स च सर्वेषामर्थानां धर्मिणामप्रसिद्धौ ततोन्यत्वेन साध्यधर्मस्य चैकत्वस्यासंभवे कथं प्रसिध्येन्नाम ? विपक्षश्च तद्विरुद्धस्ततोन्यो' वा नाद्वैतवा दिनोस्ति । तथा 'सपक्षश्च साध्यधर्माविनाभूतसाधनप्रदर्शन फलस्तस्य दूरोत्सारित एव । 12तत्सिद्धौ वा भेदवादप्रसिद्धिः । पराभ्युपगमात्पक्षादिसिद्धेरदोष इति चेन्न, स्वपरविभागासिद्धौ पराभ्युपगमस्याप्यसिद्धेः । एतेन13 यदुक्तं, सर्वेर्थाः प्रतिभासान्तः प्रविष्टाः 14प्रतिभाससमानाधिकरणतयाऽवभासमानत्वात्15 प्रतिभासस्वात्मवदिति ब्रह्माद्वैतस्य साधनं17 तदपि प्रत्याख्यातम् । अन्यथा यदि नहीं मानोगे तो द्वैत का प्रसंग आ जावेगा। तथा साध्य-साधन में अभेद होने पर किन्हीं प्रतिभास कार्य आदि हेतुओं से क्या एकत्व का निर्णय हो सकेगा? अर्थात् नहीं हो सकेगा क्योकि आप अद्वतवादियों के यहाँ तो पक्ष, सपक्ष और विपक्ष का ही अभाव है।
साध्यधर्म का आधार होने से जो प्रसिद्ध है वही धर्मी पक्ष कहलाता है । सत्ताद्वैतवादियों के यहाँ तो सभी पदार्थ धर्मीरूप से अप्रसिद्ध ही हैं और उस धर्मी से यदि साध्यधर्म भिन्न है तब उस धर्मी और साध्य में एकत्व ही असम्भव है, तब वह धर्मी पक्ष प्रसिद्ध कैसे कहलावेगा ? उसी प्रकार से विपक्ष भी उस पक्ष से विरुद्ध है अथवा उससे भिन्न ही सिद्ध होता है जो कि अद्वैतवादियों के यहाँ असम्भव है एवं सपक्ष भी पक्ष से भी भिन्न ही रहता है क्योंकि साध्य के साथ अविनाभूत हेतु को दिखलाना ही उसका फल है । इसलिये वह सपक्ष भी अद्वैतवादियों के यहाँ दूर से ही समाप्त हो जाता है और यदि इनकी भिन्न-भिन्न सिद्धि मानों तब तो भेदभाव ही प्रसिद्ध हो जाता है।
सत्ताद्वैतवादी-दूसरों के द्वारा स्वीकृत होने से हम भी उन पक्षादि को सिद्ध मानकर प्रयोग कर देते हैं । अतः कोई दोष नहीं आता है। __ जैन-आप ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि आपके यहाँ स्वपर का विभाग ही असिद्ध है। पुनः पर के द्वारा स्वीकृत पक्ष आदि की सिद्धि भी नहीं हो सकेगी।
आपने जो कहा है कि "सभी पदार्थ प्रतिभास के अन्तःप्रविष्ट हैं क्योंकि प्रतिभास-ब्रह्म के समानाधिकरणरूप से अवभासित होते हैं जैसे प्रतिभास का स्वरूप" । आपके इस कथन को भी पक्ष, विपक्ष, सपक्ष के अभाव कथन से ही निराकरण कर दिया गया समझना चाहिये ।। 1 अपि तु न स्यात् । 2 सत्ताद्वैते । 3 ब्रह्माद्वैतवादिनः सर्वे ग्रामारामादयो मिरूपार्न सन्ति । ततोऽर्थेभ्यः भित्रत्वेन प्रतिभासान्तः प्रविष्ठा इत्त्येकत्त्वलक्षणत्त्वसाध्यधर्मस्य चासंभवे कथं पक्षो घटेते। (दि० प्र०) 4 मिभ्यः । 5 पक्षः। 6 पक्षविरुद्धः । विरुद्धधर्माध्यासाद्धेतोः। 7 उक्तलक्षणात्पक्षात् । 8 एकानेकात्मकः । (दि० प्र०) 9 अद्वैतवादिमते सपक्षोपि पक्षादन्यो न सिध्द्येदित्यर्थः। 10 भिन्नत्वसाधकः। 11 अद्वैतवादिनः । (दि० प्र०) 12 भिन्नत्वसिद्धौ। 13 पक्षसपक्षविपक्षभावकथनेन। 14 प्रतिभासो ब्रह्म। तत्समानमेकमधिकरणं येषां ते तेषां भावस्तया। 15 ज्ञानेन । एकः । (ब्या० प्र०) 16 ज्ञानस्य स्वरूपवत् । (दि० प्र०) 17 साधकमनुमानम् । (दि० प्र०)
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